Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 153
________________ - (VASTA N - SFROPATI Mai अनुभवता है उसी के संसार परिपाटीका अन्त होता है, अन्यके नहीं यह निश्चय है। एसे निश्चयस्वरूप अपने आत्माको भूलकर यह संसारी जीव कर्म-नोकमनिमित्तक नर-नारकादि पर्यायोंमें एकत्व बुद्धि करके सुखी होना चाहता है यह उसका प्रथम अज्ञान है। २. एसा नियम है कि प्रत्येक द्रव्य ध्रुव स्वभावव'ला होकर भी स्वभावसे परिणमन शील है। कोई अन्य द्रव्य इसको परिणमावे और तब इसमें उत्पाद-व्ययरूप परिणामकी उत्पत्ति हो ऐसा नहीं है। आगममें उपादानके समान निमित्तांका भी कथन किया है और व्यवहारको अपेक्षा उन्हें कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण इन छह कारक रूप भी परिगणित किया गया है। परन्तु इस कथनके तात्पर्यको न समझकर यह अज्ञानी जीव परसे कार्यकी उत्पत्ति मानता आ रहा है और इसलिए अपने आत्माकी सम्हाल किये बिना परकी उठाधरीके विकल्पमें ही अपने कर्तव्यकी पूर्ति समझता है । व्यवहारनयका लक्षण क्या है और उसका किस प्रयोजनसे जिनागममें निर्देश किया गया है इस ओर यह दृष्टिपात ही नहीं करना चाहता । व्यवहारनयका म्वरूप निर्देश करते हुए जिनागममें बतलाया है कि जो अन्य द्रव्यके गुणधर्मको तद्भिन्न अन्य द्रव्यके स्वीकार करता है उसे व्यवहारनय कहते हैं। उदाहरणार्थ-घड़ा मिट्टी आदि धातुका होता है, घीका नहीं होता। परन्तु व्यवहारनय मिट्टी आदि धातुके घड़ेको आरोप कर धीका कहता है। इसी प्रकार प्रत्यक द्रव्यमें यथार्थमें कर्ता, कम, करण, सम्प्रदान, अपादान, और अधिकरणम्प पट्कारक धर्म स्वभावसे होते हैं। किन्तु व्यवहारनय अन्य व्यके विवक्षित कार्य के साथ अन्य जिस व्यकी विवक्षित पर्यायकी बाह्य व्यानि होती है उसमें कर्ता, करण आदिरूपसे आरोपकर उसे तद्भिन्न अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायका कर्ता आदि कहता है। यह व्यवहारनयकी मर्यादा है। किन्तु इसे न समझ कर यह अन्यको अन्य व्यकी पर्यायका यथार्थ कर्ता आदि मानता है और कहता है कि जब जसे निमित्त मिलते हैं, कार्य उनके अनुमार होता है। और यह भी कहता है कि समर्थ उपादानके रहते हुए यदि निमित्त नहीं मिलते तो कार्य नहीं भी होता। इतना ही क्यों, अज्ञानके कारण इसकी एसी भी मान्यता बन रही है कि निमित्तोंकी सफलता इसी में है कि उनके बलसे स्वकालको छोड़कर कार्यों की उत्पत्ति आगे-पीछे भी की जा सकती है। यदि निमित्तोंके बलसे कार्यों की उत्पत्ति आगे-पीछे न की जासके तो इसमें निमित्तोंकी निष्फलता और अपने पुरुषार्थकी हानि मानता है। जिनागममें उपादानका लक्षण करते हुए लिखा है कि अनन्तरपूर्व पर्याययुक्त द्रव्यका नाम उपादान है। समर्थ उपादान भी इसीकी संज्ञा है। किन्तु एक तो वह उपादानके इस लक्षणको स्वीकार ही नहीं करना चाहता और कदाचित् आगमके बलसे स्वीकार भी करना पड़ता है तो कहता है कि आगममें उपादानका यह लक्षण तो लिखा है, परन्तु प्रत्येक उपादानमें अनेक योग्यताएं होती हैं; अतएव जब जैसे निमित्त मिलते हैं. कार्य उनके अनुसार ही होता है इत्यादि अनेक विकल्प कर असत्कल्पना द्वारा प्रत्येक द्रव्यके परिणमन स्वभावको यर्थाथरूपमें नहीं मानना चाहता। यह इस संसारी जीवका दूसरा अज्ञान है। -LRANTEEMA

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