Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 148
________________ 0 4 कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ होती है इसमें सन्देह नहीं, पर उन्हें उस रागपर्याय के साथ रहनेवाली आत्मशुद्धिका फल समझना चाहिए, रागपर्यायका नहीं यह स्पष्ट है । इस प्रकार संयमके समान प्रतिक्रमणादिमेंसे प्रत्येकके दो दो भेद सिद्ध होने पर वे कौन कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है यह बतलाने के पूर्व उनके सामान्य स्वरूपका निर्देश करते हैं पूर्वकृत जो अनेक प्रकारके विस्तारवाला ज्ञानावरणादिरूप शुभाशुभ कर्म है उससे जो आत्मा अपनेको दूर रखता है वह आत्मा प्रतिक्रमण है । भविष्यकालका जो शुभाशुभ कर्म जिस भावमें बँधता है उस भावसे जो आत्मा निवृत्त होता है वह आत्मा प्रत्याख्यान है । वर्तमान कालमें उद्यागत जो अनेक प्रकारके विस्तारवाला शुभ और अशुभ कर्म है उस दोषको जो आत्मा चेतता है— ज्ञाताभावसे जानता है वह आत्मा वास्तव में आलोचना है । इस प्रकार जो सदा प्रत्याख्यान करता है, सदा प्रतिक्रमण करता है और सदा आलोचना करता है वह आत्मा वास्तव में चारित्र है ( समयसार ३८३ से ३८६ ) यहाँ पर आचार्य महाराजने प्रतिक्रमण आदिको आत्मा कहा है और चारित्र भी उसे बतलाया है। कारण यह है कि जिस समय जो आत्मा जिस भावरूपसे परिणमता है उस समय तन्मय होता है । यह तो सुविदित सत्य है कि प्रत्येक संसारी आत्मामें भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालसम्बन्धी राग परके लक्ष्यसे उत्पन्न होता है, उसका प्रगट या अप्रगट कोई न कोई आश्रयभूत पर द्रव्य अवश्य होता है जिसके आलम्बनसे उसकी उत्पत्ति होती है । इस प्रकार तीनों कालसम्बन्धी राग और उसके निमित्त ऐसे छह भेद होने से उनसे निवृत्त होनेवाला स्वरूपस्थितिरूप आत्मपरिणाम भी छह भागों में विभक्त हो जाता है । यही कारण है कि प्रकृतमें प्रतिक्रमणादि तीनोंके निश्चय भावप्रतिक्रमण, निश्चय द्रव्यप्रतिक्रमण, निश्चय भावप्रत्याख्यान, निश्चय द्रव्यप्रत्याख्यान तथा निश्चय भावआलोचना और निश्चय द्रव्यआलोचना ऐसे छह भेद हो जाते हैं । तथा इनसे उलटे अप्रतिक्रमण आदिके भी छह भेद हो जाते हैं । प्रतिक्रमण और अप्रतिक्रमण ये परस्पर में विरुद्ध भाव हैं। अप्रतिक्रमण आत्माकी मिथ्याचारित्र या अचारित्ररूप पर्याय है और प्रतिक्रमण आत्माकी स्वरूपस्थितिरूप चारित्रपर्याय हैं । यही इन दोनों में भेद है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान तथा अनालोचना और आलोचनाका स्वरूप समझ लेना चाहिए । ऐसा नियम है कि द्रव्य और भाव अप्रतिक्रमण, अप्रत्याख्यान और अनालोचना में रागादिके नित्य कर्तृत्वका प्रसंग आता है, इसलिए उसे छोड़ना ही चाहिए । जो जीव ऐसी श्रद्धा करता है कि 'मैं सम्यग्दृष्टि हूँ, मेरे लिए] शुभ राग अच्छा है; उसे नहीं छोड़ना:

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