Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 145
________________ - - SaalKATTERSIONS नियमके अनुसार प्रत्येक द्रव्यके तीनों कालोंमें होनेवाली पर्यायों (कार्यो)को फैला कर देखा जाय तो यही मानना पड़ता है कि प्रत्येक द्रव्यकी सम पर्याय क्रमबद्ध या क्रमनियमित ही होती हैं । उपादान कारणका जो लक्षण किया है उससे भी यही फलित होता है । केवलज्ञानमें तीनों काल और तीनों लोकसम्बन्धी गण-पर्याययुक्त सब पदार्थ युगपत प्रतिभासित होते हैं यह कथन भी उक्त तथ्यको ही सूचित करता है। इस प्रकार युक्ति और आगमसे सब द्रव्योंकी सब पर्यायोंके क्रमबद्ध सिद्ध हो जाने पर कार्य कारणपरम्पराके क्रमसे अनभिज्ञ व्यक्तियोंके सामने यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि यदि सब द्रव्योंकी सब पर्यायें क्रमबद्ध ही होती हैं तो जब जो होना होगा होगा, पुरुषार्थ करनेकी क्या आवश्यकता? जो महाशय ऐमा प्रश्न करते हैं वे यह तो मानते हैं कि छहों द्रव्योंकी जो म्वभाव पर्याय होती हैं वे क्रमबद्ध ही होती हैं पर साथ ही वे यह भी मानते हैं कि संयोगी अवस्थामें जीव और स्कन्धको जब जैसे निमित्त मिलते हैं उनके अनुसार उन्हें परिणमना पड़ता है। किन्तु इन दो बातोंको मानकर भी वे यह भी मानते हैं कि क्रमबद्ध पर्यायोंके मानने पर पुरुषार्थको माननेकी आवश्यकता नहीं रहती और निमित्तोंको स्वीकार करना निरर्थक हो जाता है। ___ इस प्रकार उन महाशयोंके ये परम्पर विरुद्ध विचार हैं । आगे इनकी संक्षेप में मीर्मासा करते हैं । मर्व प्रथम तो यह देखना है कि यदि छहों द्रव्योंकी खभाव पर्यायें क्रमबद्ध होती हैं तो क्या वे बिना पुरुषार्थक होती हैं । यदि कहा जाय कि उनके होने में पुरुषार्थके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है तो यह प्रहम उपस्थित होता है कि यदि ऐसी बात है तो अरिहन्तों और सिद्धोंके जो अनन्त बल बतलाया है वह किसलिए? क्या अनन्त बलके अभावमें केवलज्ञानी तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायांको युगपन जान सकते हैं ? करणानुयोगका जिन्होंने स्वाध्याय किया है वे यह अच्छी तरहसे जानते हैं कि जिस जीवके जितने ज्ञान-दर्शनका उघाड़ होता है उसके, उसके अनुरूप वीर्यका भी उघाड़ पाया जाता है । ऐसा नियम क्यों ? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि अरिहन्त परमेष्ठी और सिद्ध परमेष्टीकी प्रति समय जो जानने-देखनेरूप परिणति होती है वह पुरुषार्थपूर्वक ही होती है। और जब उनके प्रति समय जानने-देखनेरूप परिणति पुरुपार्थपूर्वक होकर भी वह क्रमबद्ध बन जाती है तो फिर इतर संसारी जीवोंकी परिणति पुरुषार्थपूर्वक होकर भी क्रमबद्ध झे इसमें क्या आपत्ति ? सच तो यह है कि जिनमें अनन्त बल है वे तो अपनी परिणति को आगे-पीछे कर नहीं सकते फिर हम संसारी जन, जो हीन बलवाले हैं, अपनी परिणतिको आगे-पीछे कर लेंगे यह कैसा मानना है । थोड़ा वस्तुस्वरूपका विचार कीजिए और उसके बाद निर्णय कीजिए । केवल कल्पनाके आधार पर वस्तुके स्वरूपको माननेकी हट छोड़िये । यहाँ जीव द्रव्यकी मुख्यतासे विचार किया है। पुद्गल स्कन्धों पर भी यही नियम लागू होता MAHA Altitutt

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