Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 132
________________ ऋ 0: कानजी स्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ कारण कि रुपया दे देनेके लिए उत्तरार्धमें लिखा था | परन्तु गहने गिरवी रखकर देना ' पूर्वार्धका यह अंश पढ़ा नहीं था । इसके बाद छह महीना हुए होंगे कि वह आर्थिक दृष्टिसे कमजोर पड़ गया, उसकी पीढ़ी भी बन्द हो गई । तब रुपया देनेवाले सेठके पुत्रको खबर लगी कि पिताजीका मित्र तो कमजोर हो गया और अपना रुपया गया । यह खबर मिलते ही उसने बम्बई अपने पिताको पत्र लिखा कि आपके लिखनेसे जिसे पचास हजार रुपया दिया था वह आपका मित्र आर्थिक दृष्टिसे कमजोर हो गया है और अपना रुपया भी जोखममें आ गया है, कदाचित् बट्टेखाते डालना पड़े ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है; इसलिए अब क्या करना ? इस मतलबका पत्र बम्बईके सेठको मिला । पत्रके मिलने पर पढ़कर उसने विचार किया कि भाई ऐसा कैसे लिखता है । मैंने तो जवाहरात और गहने गिरवी रखकर उसे रुपया देने को लिखा था । सेठजीने तत्काल परदेश अपने पुत्रको पत्र लिखा कि मेरा पहला पत्र पढ़ो ! उसमें मैंने यह वाक्य लिखा है- "जवाहरात और गहने गिरवी रखकर उसके पेटे मेरे मित्रको पचास हजार रुपया देना ।" तब पुत्रने उक्त वाक्यवाला पत्र फायलमेंसे निकाल कर पढ़ा। पत्रके पढ़ते ही तत्काल अपनी भूल दिखाई दी कि उतावलोमें पत्र अधूरा पड़ा था । अल्प विराम तकका पूर्वार्ध पढ़ा नहीं और उत्तरार्धका अधूरा वाक्य पढ़ा। पढ़ने में भूल हो गई, इससे ऐसा हो गया । जो बराबर पूरा वाक्य पढ़ा होता तो ऐसा नहीं होता । यह उदाहरण है । इस परसे जो सिद्धान्त फलित होता है वह इस प्रकार है सर्वज्ञ वीतराग परमात्माकी वाणीमें ऐसा आया है कि जब जीव अपने ज्ञायक स्वभावको मूलता है--वभावसे च्युत होता है तभी वह रागादि विकाररूपसे परिणमता है । उस समय उसका लक्ष्य जिस परपदार्थके ऊपर होता है उसे निमित्त कहा जाता है और रागादिकको नैमित्तिक कहा जाता है। तथापि अज्ञानी जीव भगवानकी वाणीके 'स्वभावको भूलनेसे राग होता है' इस पूर्वार्धको न पढ़कर 'कर्मके उदयसे राग होता हैं' ऐसा मानकर एकान्त कर्मके ऊपर राग के कर्तापनका दोष मढ़ता है । किन्तु भगवानकी वाणीमें आया हुआ 'कर्मके उदयसे राग होता है' यह उत्तरार्ध कथन व्यवहारनयका वचन है । तथापि अज्ञानी जीव एकान्तम व्यवहारनयके कथनको ग्रहणकर अशुद्ध उपादानरूप निश्चयनयके कथनको छोड़ देता है । उनका कथन यथार्थ है और यथार्थका नाम निश्चय है । निमित्तप्रधान कथन उपचार है और उपचारका नाम व्यवहार है । इसलिए कर्म - निमित्तके पक्षपाती जीव श्री समयसारजी शास्त्रकी गाथा ३७८-३७९ का आधार देकर कहते हैं कि देखो, इसमें लिखा है कि " जो पर द्रव्य आत्मा के रागादिका निमित्त है उसी पर द्रव्यके द्वारा ही शुद्ध स्वभावसे युत होता हुआ रागादिरूपसे परिणमाया

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