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कानजी स्वामि- अभिनन्दन ग्रंथ
बाह्येतरोपाधिसमप्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभाव : । नैवान्यथा मोक्षविधिश्च पुंसां तेनाभिवन्द्यस्त्वमृषिर्बुधानाम् ||६०||
कार्यों में जो यह बाह्य और आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता है वह आपके मत में द्रव्यगत स्वभाव है। इसे यदि द्रव्यगत स्वभाव नहीं माना जाय तो जीवोंको मोक्षविधि नहीं बनती। ऐसे अपूर्व तत्त्वका उद्घाटन करनेके कारण ऋषि अवस्थाको प्राप्त हुए आप बुधजनोंक द्वारा अभिवन्द्य हैं ॥ ६० ॥
यह कार्य-कारणपरम्परा के अनुरूप वस्तुव्यवस्था है। आगे इमी विषयको उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं। जब कोई छात्र अध्ययन करता है तो कभी विशिष्ट क्रियायुक्त दूसरा व्यक्ति (जिसे लोक में अध्यापक कहते हैं । पुस्तक और प्रकाश आदिका उसे सानिध्य होता है और कभी इनमें से किसी एकका और प्रदीप आदि अन्य किसीका सानिध्य होता है । यहाँ छात्रका अध्ययन यह कार्य है जो उसके ज्ञानगुणकी विशिष्ट अवस्था ( पर्याय ) है, इसलिए विवक्षित योग्यतासम्पन्न वह ज्ञानगुण उस कार्यका उपादान है, क्योंकि अध्ययनरूप कार्य की विवक्षित योग्यतासम्पन्न ज्ञानगुणके साथ अन्तर्व्याप्त है तथा विशिष्ट क्रियायुक्त दूसरा व्यक्ति आदि निमित्त हैं, क्योंकि अध्ययनरूप कार्यकी उन विशिष्ट क्रियायुक्त मनुष्य आदिके साथ बाह्य व्यामि है ।
अव प्रकृत में विचार यह करना हैं कि यह जो छात्रका अध्ययनकार्य हुआ है उसका यथार्थ कारण क्या है ? विशिष्ट क्रियायुक्त मनुष्य तो उसका यथार्थ कारण हो नहीं सकता. क्योंकि उसके अभाव में भी अध्ययन देखा जाता या उसके सद्भावमें भी अध्ययनरूप कार्य नहीं देखा जाता । यही बात प्रकाश आदि पर भी लागू होती है। इतना अवश्य है कि जब जब छात्र अध्ययन करता है तब तब इन सबका या इनमें से किसी एकका सानिध्य अवश्य होता है । यही कारण है कि कार्य-कारणपरम्पराके विशारदोंने विवक्षित कार्यमें विशिष्ट अवस्थायुक्त बाह्य सामग्री के सद्भावको स्वीकार करके भी उसे यथार्थ कारण नहीं कहा। किन्तु ऐसा अनियम विशिष्ट योग्यता सम्पन्न ज्ञानगुण पर लागू नहीं होता, क्योंकि यदि उस छात्रको विशिष्ट योग्यतासम्पन्न ज्ञानगुण प्राप्त न हो तो विशिष्ट क्रियायुक्त इतर मनुष्य आदिका सानिध्य होने पर भी उसका अध्ययन कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता, इसलिए मानना होगा कि उस छात्र अध्ययनरूप कार्यका विशिष्ट योग्यतासम्पन्न ज्ञानगुण ही यथार्थ कारण है, अन्य नहीं ।
यहाँ कोई तर्क करेगा कि यद्यपि हम यह मान लेते हैं कि कार्यकी उत्पत्ति में उपादान कारणका होना आवश्यक है, क्योंकि वह स्वयं कार्यरूप परिणत होता है और इम लिए उसे यथार्थ कारण कहना भी संगत है । पर बाह्य सामग्रीके (जिसमें निमित्तका व्यवहार होता है) न होने पर भी तो कार्य नहीं होता, इसलिए जिस बाह्य सामग्री के सद्भाव में उपादानरूप