Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 133
________________ जाता है । " यद्यपि पूर्वोक्त शास्त्रवचन में सुम्पष्ट शब्दों में कहा है कि “ शुद्ध स्वभावसे च्युत होता हुआ ही ” सो इसका तात्पर्य यह है कि जब आत्मा स्वतन्त्रपने स्वयं शुद्ध स्वभावसे युत होता है तभी परद्रव्य द्वारा रागादिरूपसे परिणमाया जाता है । इसलिए इस गाथानसे ही ऐसा सिद्ध होता है कि जब जीव स्वयं शुद्ध स्वभावसे च्युत होकर रागादि नैमित्तिक भावरूपसे परिणमता है उस समय रागका जो लक्ष्य होता हैं ऐसे पर द्रव्यपर ris faत्त कर्तापने का आरोप आता है । इससे यह फलित हुआ कि कर्मके उदयसे राग होता नहीं, परन्तु जब जीय स्वयं शुद्ध स्वभावसे च्युत होता है तब राग होता है । आत्माका दृष्टिसे परपदार्थ के साथ निमित्त नैमित्तिकसम्बन्धका अभाव होते हुए जो स्वभावको भूला है उसीको एक समय पुरता निमित्त - नैमित्तिकसम्बन्ध होता हैं, अतः आस्रव-बन्ध होता है । और उस आत्र-बन्धरूप निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्धका निरोध - अभाव होते ही संबर, निर्जरा, मोक्ष उत्पन्न होता है । इसलिए आत्माको स्वभावदृष्टिसे देखनेवर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध नहीं 1 परन्तु स्वयंको जानते हुए अपने में ज्ञाता ज्ञेय ऐसा सम्बन्ध चालू रहते हुए पर पदार्थों के साथ भी ज्ञाता ज्ञेयपना घटित होता है । स्व-परप्रकाशक स्वभाव में कर्ता-कर्म या निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध नहीं है । उपादान - निमित्तविचार श्री 'युगल 'जी, एम. ए., साहित्यरत्न, कोटा उपादान और निमित्त वस्तुतः किसी एक या पृथक-पृथक पदार्थों के कोई स्थायी नाम नहीं हैं, किन्तु अभिप्राय विशेषसे प्रदत्त दो संज्ञाऐं हैं । विश्वके सभी पदार्थोंपर यह नियम लागू होता है । विश्वके सभी पदार्थ अपनी अपनी स्वाधीन सीमाके अन्तर्गत रहते हुए भी परस्पर पृथक् पृथक् निमित्त - उपादानभावकी सहज शृंखला में आबद्ध हैं। यथा--- अमन्तर पूर्व पर्याय विशिष्ट प्रत्येक द्रव्यको उपादान कहते हैं ( अष्टसहस्री टिप्पण प्र. २१९) और उपादानसे होनेवाले कार्यके साथ उससे भिन्न एक या एकसे अधिक अन्य जिन पदार्थोकी बाह्य व्याप्ति होती है उन्हें निमित्त कहते हैं । तात्पर्य यह है कि विवक्षित कार्यके साथ जिसकी अन्तर्व्याप्ति होती है उसकी उपादान संज्ञा है और जिसकी बाह्य व्याप्ति होती है उसमें निमित्त व्यवहार होता है ( समयसार गाथा ८४ आत्मख्याति टीका ) । ऐसा वस्तुस्वभाव है कि प्रत्येक कार्य में बाह्य आभ्यन्तर उपाधिकी समग्रता होती है। इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आचार्य समन्तभद्र स्वयम्भुस्तोत्र में कहते हैं 昕 फ

Loading...

Page Navigation
1 ... 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195