________________
कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
com
स्
-
(बल) क्यों न लगावे तथापि मिट्टीसे घट पर्याय तक होनेवाली अपनी सब पर्यायोंमेंसे गुजरने के पहले वह मिट्टी घट नहीं बनती। इस काल में कुम्भकारका जितना भी व्यापार है वह सब एकमात्र घट बनाने के लिए हो रहा है फिर भी वह मिट्टी नियत पर्यायोंमेंसे जानेके पूर्व घट नहीं बन रहा है। इसका क्या कारण है ? कारण स्पष्ट है। बात यह है कि जिस प्रकार मिट्टीके बाद घट तक होनेवाली सब पर्यायों से गुजरना उसका सुनिश्चित है उसी प्रकार कुम्भकारका उन पर्यायोंके लिए व्यापार करना भी सुनिश्चित है। न तो मिट्टी अपनी पर्यायीको आगे-पीछे कर सकती है और न कुम्भकार ही अपने व्यापारके क्रमको बदल सकता है । जिस प्रकार के व्यापारको वह खेतसे मिट्टी लाते समय करता है उम प्रकार के व्यापारको वह घट पर्यायकी निष्पत्तिके समय नहीं करता। और जिस प्रकारके व्यपारको वह घट निष्पत्तिके समय करता है उस प्रकारके व्यापारको वह खेतसे मिट्टी लाते समय नहीं करता। इसका अर्थ हुआ कि खेतसे मिट्टी लानेके समयसे लेकर उसके घट बनने तकके जितने कार्य हैं, कुम्भकारके व्यापार भी उतने ही प्रकारके हैं और इन दोनों प्रकारके व्यापारोंका परम्पर योग है। एकके होने पर दुसरा उसके अनुरूप होता ही है। इसमें फेर-बदल कोई कर नहीं सकता। इसी तथ्यको ध्यानमें रख कर भट्टाकलंकदेवने अष्टशतीमें यह वचन कहा है
तादृशी जायते बुद्धिः व्यवसायश्च तादृशः ।
सहायाः तादृशाः सन्ति यादशी भवितव्यता ।। भवितव्यता अर्थात जिस कालमें जिस द्रव्यसे जैसा कार्य होना होता है वसी ही मनुष्यकी बुद्धि होती है. पुरुषार्थ भी वैसा ही होता है और महायक भी बस ही मिलते हैं।
यहाँ भट्टाकलंकदेव भवितव्यको प्रधानता दे रहे हैं। मनुष्यकी बुद्धि, उसके पुरुषार्थ और अन्य सहायकोंको नहीं। ऐसा क्यों, जबकि कार्यकी उत्पत्तिमें आभ्यन्तर मामग्रीक समान बाह्य सामग्रीका होना आवश्यक है। तब फिर यहाँ मात्र आभ्यन्तर मामग्रीको मुख्यता क्यों दी गई है। स्पष्ट है कि भट्टाकलंकदेव स्वयं यह अनुभव करते हैं कि कार्यमें मुख्यता मात्र आभ्यन्तर सामग्रीको है। उसके होने पर बाह्य सामग्री तो मिलती ही है।
जैनागममें बतलाया है कि द्रव्यलिंगके होने पर भावलिंग होना ही चाहिए इसका कोई नियम नहीं। परन्तु भावलिंगके होने पर द्रच्यलिंग होता ही है ऐसा नियम अवश्य है सो इस कथनका भी यही तात्पर्य है कि जब जिस कार्यके अनुरूप आभ्यन्तर सामग्री होती है तब बाह्य सामग्री, जो लोकमें उसकी सहायक कही जाती है, अवश्य मिलती है । इस नियमका अपवाद नहीं है। निश्चय और व्यवहारका ऐसा ही योग है। लोकमें अनादि कालसे जितने भी कार्य हुए, हो रहे हैं और होंगे उन सबमें एक मात्र इसी नियमको लागू समझना चाहिए। यहाँ उपादानकी निश्चय संज्ञा है, क्योंकि वह स्व है और निमित्तकी व्यवहार संज्ञा है, क्योंकि वह पर है। कार्यकी उत्पत्ति स्वसे हो होती है,
PER