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कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रथम
एएण कारणेण दु कत्ता आदा सरण भावेण ।
पुगगलकम्मकयाणं ण दु कत्ता सव्वभावाणं ।।८२॥ इस कारण आत्मा अपने भावोंका कर्ता है, किन्तु पुद्गलकर्मकृत सर्व भावोंका कर्ता नहीं है ॥२॥
जड़कर्मों के बन्धके समय जीव मिथ्यादर्शनादि परिणाम करता है, कार्मणवर्गणाओंमें ज्ञानावरणादिरूपसे कर्म परिणमनरूप कुछ भी कार्य नहीं करता है इस विषयको स्पष्ट करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र पुरुषार्थसिद्धयुपायमें लिखते हैं
जीवकृतं परिणाम निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये ।
स्वयमेव परिणमन्ते पुद्गलाः कर्मभावेन ॥५२॥ . जीवद्वारा किये गये रागादि परिणामोंका निमित्त पाकर उससे भिन्न पुद्गल स्वयं कर्मरूप परिणम जाते हैं ।।१२।।
__ यदि किसी कपड़ेमें तेल, घी आदि कोई स्निग्ध पदार्थ लगा हो तो यहाँ पर बारीक कूड़ा-करकट इकट्ठा होकर कपड़ेसे संयुक्त हो जाता है। यहाँ पर स्निग्ध पदार्थने कूड़ा-करकटको चिपकानेरूप किसी प्रकारका प्रयत्न नहीं किया है, जड़ होनसे इच्छा तो कर ही नहीं सकता। किन्तु उड़ता हुआ वह कचरा स्निग्धताका निमित्त पाकर स्वयं संयुक्त हुआ है। ये दोनों पदार्थ एक ही कालमें अपना-अपना ही कार्य कर रहे हैं। इसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिए। स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द इस विषयको स्पष्ट करते हुए प्रवचनसारमें लिखते हैं
कम्मत्तणपाओग्गा खंधा जीवस्स परिणई पप्पा ।
गच्छंति कम्मभावं ण हि ते जोवेण परिणमिदा ॥ ७७ ॥ जीवकी रागादिरूप परिणति विशेषको पाकर कर्मरूप परिणमनके योग्य पुद्गल स्कन्ध कर्मभावको प्राप्त होते हैं। उनका कर्मरूप परिणमन जीवके द्वारा नहीं किया गग है ॥७॥
जीव पुद्गल कर्मको नहीं करता है तो कौन करता है. यह प्रश्न उठाकर आचार्य अमृतचन्द्र खयं लिखते हैं
जीवः करोति यदि पुद्गलकर्म नैव कम्तर्हि तत्कुरुत इत्यभिशंकयैव ।
एतर्हि तीव्ररयमोहनिवर्हणाय संकीर्यते शृणुत पुद्गलकर्म कर ॥६३।।
यदि जीव पुद्गलकर्मका कर्ता नहीं है तो उसका कर्ता कौन है ऐसी शंका होने पर शीघ्र ही मोह निवारणार्थ आचार्य कहते हैं-सुनो, पुद्गल कार्मणवर्गणा उसका कर्ता है ॥६३॥
जीव पुद्गल कर्मको नहीं करता, इस भावका स्पष्टीकरण समयसार कलशके इस इलोकसे भले प्रकार हो जाता है
आत्मभावान् करोत्यात्मा परभावान् सदा परः । आत्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ ५६।।