Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 128
________________ कानजी स्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ जयवन्त होओ, जिसमें दर्पणतलके समान समस्त पदार्थमालिका प्रतिभासित होती है । जैसे क्षेत्रान्तर में स्थित घटादि पदार्थ दर्पण में प्रतिबिम्बित होते हैं वैसे ही क्षेत्रान्तर में स्थित घंटादि पदार्थ ज्ञानके विषय होते हैं और यह असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि आबाल - गोपाल यह प्रसिद्ध है । अतएव जो ज्ञान करण, क्रम और आवरणसे रहित हो वह तीन लोक और तीन कालवर्ती समस्त पदार्थोंको युगपत् जाने इसमें कोई बाधा नहीं आती । ज्ञानके दो प्रकार हैं-- ज्ञानाकार और ज्ञेयाकार। प्रत्येक ज्ञानका जो ज्ञेयाकाररूप परि णमन होता है उसकी विवक्षा न कर मात्र सामान्यरूपसे ज्ञानके देखने पर वह ज्ञानाकार प्रतीत होता है और ज्ञेयाकाररूप परिणमनकी विवक्षामें वह ज्ञेयाकार प्रतीत होता है। इससे सिद्ध होता है वि केवलज्ञानका जो प्रत्येक समय में परिणमन है वह तोन लोक और त्रिकाल - वर्ती समस्त ज्ञेयाकाररूप ही होता है । केवलज्ञान तीन लोक और त्रिकालवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है यह जो आगम में कहा है सो उसका भी तात्पर्य यही है । इससे यह ज्ञात हो जाता है कि जिसने पूरी तरहसे अपने आत्माको जान लिया उसने सबको जान लिया । उसको दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि जिसने सबको पूरीतरहसे जान लिया उसने अपने आत्माको पूरी तरहसे जान लिया । जानना ज्ञानकी परिणति है और वह परिणति ज्ञेयाकाररूप होती है, इसलिए अपने आत्मा के जानने में सबका जानना या सबके जानने में अपने आत्माका जानना आ जाता है। समस्त ज्ञेयोंकी अपेक्षा जब उसका व्याख्यान करते हैं तब वह सबका जानना कहलाता है और ज्ञान परिणतिकी अपेक्षा जब उसका व्याख्यान करते हैं तब वह आत्माका जानना कहलाता है । इससे यह भी ज्ञात हो जाता है कि सर्वज्ञ जानता तो सबको है पर वह तन्मय हो कर नहीं जानता । उदाहरणार्थ एक ऐसे दर्पणको लीजिए जिसमें अग्निकी ज्वाला प्रतिविम्बित हो रही है। आप देखेंगे कि ज्वाला उष्ण है, परन्तु दर्पणगत प्रतिबिम्ब उष्ण नहीं होता । ठीक यही स्वभाव ज्ञानका है । ज्ञानमें समस्त ज्ञेय प्रतिभासित तो होते हैं, पर ज्ञेयोंसे तन्मय न होने के कारण ज्ञान मात्र उन्हें जानता तो है, तन्मय नहीं होता । स्वामी समन्तभद्र केवलज्ञानकी इस महिमाको जानकर सर्वज्ञताकी बड़े ही समर्थ शब्दोंद्वारा सिद्धि की है । वे आप्तमीमांसा में लिखते हैं सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ ५ ॥ सूक्ष्म (परमाणु आदि) अन्तरित (राम, रावणादि) और दूरवर्ती (सुमेरु आदि) पदार्थ किसी पुरुषके प्रत्यक्ष अवश्य हैं, क्योंकि वे अनुमेय हैं । जो अनुमेय होते हैं वे किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं । जैसे पर्वत में अग्निको हम अनुमानसे जानते हैं, किन्तु वह किसी के प्रत्यक्ष भी है। इससे सिद्ध होता है कि जो पदार्थ किसीके विषय होते हैं वे अनुमान के

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