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मायामालामाल
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कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
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करने के लिए अभावको चार प्रकारका मानना इष्ट है-प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव
और अत्यन्ताभाव। . अब आगे इनके स्वरूपका विचार करना है। आचार्य विद्यानन्दि अष्टसहस्री ( १०९) में इनके स्वरूपका विचार करते हए लिखते हैं
__ यदभावे हि नियमतः कार्यस्योत्पत्तिः स प्रागभावः, यदभावे च कार्यस्य नियता विपत्तिः स प्रध्वंसः, स्वभावान्तरात्स्वभावव्यावृत्तिरन्यापोहः, कालत्रयापेक्षाभावोऽत्यन्ताभावः ।
आशय यह है कि जिसका अभाव होने पर कार्यकी नियमसे उत्पत्ति होती है वह प्रागभाव है, जिसका अभाव होने पर कार्यका नियमसे नाश होता है वह प्रध्वंसाभाव है, अन्यके स्वभावसे स्वस्वभावकी व्यावृत्ति इतरेतराभाव है और कालत्रयमें जिसका अभाव है वह अत्यन्ताभाव है ।
ये चार प्रकारके अभाव हैं। इनके स्वीकार करनेपर जहाँ प्रत्येक द्रव्यकी स्वतन्त्रता परिलक्षित होती है वहाँ प्रत्येक कार्य स्वकाल में होता है यह भी ज्ञात हो जाता है। साधारणतः अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभावके स्वरूप पर दृष्टिपात करनेसे ऐसा लगता है कि इन दोनों में विशेष अन्तर नहीं है; किन्तु यह बात नहीं है । आम्मीमांमाका वसुनन्दिदेवागमवृत्ति (कारिका ५१)में बतलाया है कि जो वर्तमान में उसरूप न हो, किन्नु कालान्तर में उमरूप हो सके ऐसे पुद्गलोंमें इतरेतराभाव होता है। जैसे कुटमे पटका अभाव इतरेतराभाव है, क्योंकि कुट और पट ये दोनों पुद्गलोंकी पर्याय हैं । जो पुद्गल वर्तमानमें कुटरूप हैं वे कालान्तर में पटरूपसे परिणमित हो सकते हैं और जो पुद्गल वर्तमान में पटरूप हैं वे कालान्तरमें कुटरूपसे परिणमित हो सकते हैं, इसलिए इन दोनोंमें इतरेतराभाव है। किन्तु जिसका जिसमें तीनों कालोंमें अभाव हो वह अत्यन्ताभाव है। जैसे जीवारूपसे पुद्गलका अत्यन्ताभाव है, क्योंकि तीनो कालोंमें पुद्गल जीवरूप नहीं परिणम सकता । वह वचन इस प्रकार है---
अथेतयोरभावयोः को विशेष इति चन कुटे पटाभाव इतरेतराभावः, कादाचित्कालान्तरे तेन स्वरूपेण भवति, शक्तिरूपेण विद्यमानत्वान । अत्यन्ताभावः पुनः जीवत्वेन पुदगलम्या भावः कदाचिदपि तत्तेन स्वरूपेण न भवति ।
__ यहाँ इतरेतराभावको स्वीकार कर यह बतलाया गया है कि प्रत्येक पुद्गलद्रव्य में वर्तमान पर्यायके समान अतीत और अनागत पर्याय शक्तिरूपसे विद्यमान रहती हैं और अत्य. न्ताभावको स्वीकार कर यह बतलाया गया है कि एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यमें किसी भी अपेक्षासे प्रवेश सम्भव नहीं है। कार्य-कारणपरम्परामें जहाँ एक व्यकी विवक्षित पर्यायको अन्य द्रव्यकी विवक्षित पर्यायका कारण कहा गया है वहाँ वह मान बाह्य व्यातिद्वारा विवक्षित कार्यका ज्ञान करानेके लिए ही कहा गया है, इसलिए उसे उपचार कथन ही जानना चाहिए ।
इस प्रकार जैनदर्शनमें अभाव और उसके भेदोंका स्वरूप क्या है तथा उनको स्वीकार करनेसे क्या लाभ है इसका संक्षेपमें विचार किया।
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