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किसी के प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं। यतः सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ अनुमानसे जाने जाते हैं, अतः उन्हें प्रत्यक्षसे जाननेवाला भी कोई होना चाहिए। और जो उन्हें प्रत्यक्षसे जानता है वही सर्वज्ञ है।
नियम यह है कि अनुमानज्ञान व्याप्तिज्ञानपूर्वक होता है और व्यानिज्ञान प्रत्यक्षज्ञानपूर्वक होता है, क्योंकि लिंग और लिंगीका कहीं पर प्रत्यक्ष ज्ञान होनेपर ही अन्यत्र व्याप्ति ज्ञानके बलसे अनुमान ज्ञानकी प्रवृत्ति होती है । इसके विना अनुमान ज्ञानकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती। यतः सूक्ष्म, अन्तरित और दृरवर्ती पदार्थ अनुमेय हैं. अतः वे किसीके प्रत्यक्ष भी हैं यह सिद्ध होता है और जिमके वे प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ है यह सिद्ध होता है।
इस प्रकार उक्त अनुमान प्रमाणके बलसे मर्वज्ञकी मिद्धि हो जाने पर भी यह विचारणीय हो जाता है कि सर्वज्ञ कौन हो सकता है ? आचार्य ममन्तभद्रके सामने भी यह प्रश्न था । उन्होंने इमका समाधान करते हुए बतलाया है कि जिसके अज्ञानादि दोषों के साथ उनके निमित्त रूप ज्ञानावरणादि कर्म दूर हो गये हैं वह निर्दोष और निरावरण होनेसे सर्वज्ञ है, क्योंकि प्रत्येक जीव केवलज्ञानस्वभाव है, फिर भी संसारी जीवके अनादि कालसे अज्ञानादि दोष और ज्ञानावरणादि कर्मो का सद्भाव पाया जाता है। किन्तु जब उक्त प्रकार के अन्तरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके मलोंका क्षय हो जाता है तब त्रिकाल और त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों को जानने में समर्थ केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
अब प्रश्न यह है कि क्या किमी आत्मामें सम्पूर्ण दोषों और आवरणोंकी सर्वथा हानि सम्भव है ? इसके उत्तर में आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि किसी आत्मामें दोष (अज्ञान, राग, द्वेष और मोह ) तथा आवरण (ज्ञानावरणादि कर्म)की पूर्ण हानि सम्भव है, क्योंकि दोष और आवरणकी हानिमें अतिशय देखा जाता है। किसी में इनकी कम हानि देखा जाती है। दूसरेमें उससे अधिक और तीसरे में उससे भी अधिक हानि देखी जाती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर हानिमें प्रकर्ष देखा जाता है । अतः कोई ऐसा पुरुष भा होना चाहिए जिसमें दोष और आवरणकी हानिका परम प्रकर्ष ह' अर्थात सम्पूर्ण हानि हो। जिस प्रकार सोनेको अग्निमें तपाने पर उसमें विद्यमान अशुद्धता आदि दोष और मलकी हानि होकर वह पूर्ण शुद्ध हो जाता है उसीप्रकार आत्मध्यानरूपी अग्निके द्वारा द्रव्यकर्म और भावकर्मरूपी मलके नष्ट हो जाने पर आत्मा शुद्ध होकर उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य आदि म्वाभाविक गुण पूर्णम्पसे प्रगट हो जाते हैं। तात्पर्य यह है कि यह आत्मा अज्ञानादि दोष
और चार धाति कर्मों का अभावकर सर्वज्ञ और वीतराग हो जाता है। आचार्य समन्तभद्र इसी तथ्यको स्पष्ट करते हुए आसमीमांसामें लिखते हैं
दोषावरणयोर्हानिनिशेषास्त्यतिशायनात् । कचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्षयः ॥४॥
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