Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 121
________________ - कहा है, किन्तु घट-पटादिकी उत्पत्ति एकक्षेत्रावगाह होकर नहीं होती, इसलिये उक्त असद्भूत व्यवहारमें क्रमसे अनुपचरित और उपचरित विशेषण लगाये हैं। तात्पर्य यह है कि जीव और कर्म-नोकर्म आदिमें अन्तर्व्याप्तिका अभाव होनेसे जीव उनके आदि, मध्य और अन्तमें व्याप्त होकर उनको करता हो ऐसा तो नहीं है फिर भी अनादिरूद लोकव्यवहारकी अपेक्षा जीयको कर्म, नोकर्म और घट-पट आदिका कर्ता कहा जाता है। इसी बातको स्पष्ट करते हुए श्री समयसारजी गाथा १०६में राजाका दृष्टान्त देकर भलेप्रकार समझा दिय गया है और गाथा १०७में फलितार्थरूपमें यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आत्मा पुद्गलद्रव्यके कर्म-नोकर्म आदि कार्यों को उत्पन्न करता है, करना है, बाँधता है, परिणमाता है, प्रहण करता है यह व्यवहारनयका वक्तव्य है। व्यवहारनयका विशेष स्पष्टीकरण पूर्व में किया ही है। इसलिए प्रत्येक कार्यको उत्पत्ति निमित्तसे न होकर वस्तुतः उपादानसे ही होती है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इसलिए यद्यपि जीवका कर्मके साथ अपने अज्ञानके कारण अनादि संयोग है पर जीवकी यह संसारकी परिपाटीरूप अवस्था जीवने स्वयं की है, कर्म उमका करनेवाला नहीं। एक कविने बड़े सुन्दर शब्दोंमें इस भावको व्यत किया है। वे भगवद्भकि में ओत-प्रोत होकर अपने अपराधको स्वीकार करते हुए लिखते हैं कर्म विचारे कौन भूल मेरी अधिकाई । अग्नि सहे घनघात लोहकी संगति पाई ॥ श्रीपण्डित टोडरमलजी इस बातको स्पष्ट करते हुए मोक्षमार्गप्रकाशक (पृ. ३७) में लिखते हैं इहां कोउ प्रश्न करै कि कर्म तो जड़ है, किछू बलवान् नाही, तिनिकरि जीवके स्वभावका घात होना वा बाह्य सामग्रीका मिलना कैसे संभवे । ताका समाधान-जो फर्म आप कर्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभावकौं घात, बाह्य सामग्रीकौं मिलावै तब कर्मकै चेतनपनौ भी चाहिए अर बलवानपनौ भी चाहिए। सो तो है नाही, सहज ही निमित्त-नैमित्तिकसम्बन्ध है। जब उन कर्मनिका उदय काल होय तिस काल विर्षे आप ही आत्मा स्वभावरूप न परिणमै, विभावरूप परिणमै वा अन्य दव्य ते तेसैं ही सम्बन्धरूप होय परिणमैं ।...बहरि जैसैं सूर्यके उदयका काल विर्यै चकवा-चकवीनिका संयोग होय तहां रात्रिविर्षे किसीनै द्वेषबुद्धितै जोरावरी करि जुदे किए नाहीं । दिवस वि काहू. करुणा बुद्धि ल्याय करि मिलाए नाहीं। सूर्य उदयका निमित्त पाय आप ही मिले हैं अर सूर्यास्तका निमित्त पाय आप ही बिछरें हैं । ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक बन रहा है । तैसें ही कर्मका भी निमित्त-नैमित्तिक भाव जानना । ____ श्री पण्डित टोडरमलजीके लिखनेका आशय यह है कि जीवके भाव कर्माधीन नहीं, किन्तु यह जीव जब स्वयं अपने उपयोगको बहिर्मुख करके राग-द्वेष करता है तब कर्मोदय निमित्त बन जाता है यह वस्तुस्थिति है । जीवके भाष कर्माधीन है यह वस्तुस्थिति नहीं। फिर भी E

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