Book Title: Kanjiswami Abhinandan Granth
Author(s): Fulchandra Jain Shastri, Himmatlal Jethalal Shah, Khimchand Jethalal Shah, Harilal Jain
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 117
________________ Co 'आत्मा सर्वदा अपने भावोंका कर्ता है, और पुद्गलादि पर द्रव्य सर्वदा परभावों का कर्ता है, इसलिए आत्माके भाव आत्मा ही हैं और परके भाव पर ही हैं ।। ५६ ।। इस प्रकार कर्म क्या हैं और उनका जीवके साथ संयोग कैसे होता है यह स्पष्टीकरण हो जाने पर भी प्रश्न यह है कि यह संयोग कसे चालू है । यह प्रश्न आचार्यों के सामने भी रहा है। आचार्य अमृतचन्द्र इसका समाधान करते हुए समयासर गाथा १०५की टीका में लिखते हैं- इह खलु पौद्गलिककर्मणः स्वभावादनिमित्तभूतेऽप्यात्मन्यनादेरज्ञानात्तन्निमित्तभूतेनाज्ञानभावेन परिणमनान्निमित्तीभूते सति संग्द्यमानत्वात्पौद्गलिकं कर्मात्मना कृतमिति निर्विकल्प - विज्ञानघनभ्रष्टानां विकल्पपराणां परेषामस्ति विकल्पः । सतूपचार एव न तु परमार्थः । इस लोकमें आत्मा स्वभावसे पुद्गलोंके कर्मरूप परिणमनका निमित्त नहीं है, किन्तु अनादिकालीन अज्ञानके कारण कर्मपरिणामके निमित्तरूप अज्ञानभावसे परिणमन करनेके कारण उसको निमित्त कर पुद्गल कर्मरूप परिणमन करते हैं, इसलिए निर्विकल्प विज्ञानघनसे भ्रष्ट हुए जीवोंक जीवने कर्म किया ' ऐसा विकल्प होता है । किन्तु आत्माने कर्म किया यह उपचार है, परमार्थ नहीं । यह वस्तुस्थितिका सूचक वचन है। इसमें बतलाया है कि जीवका स्वभाव तो यह नहीं है कि वह पुद्गलोके कर्मरूप परिणमन में निमित्त हो । किन्तु वह अनादि काल से अज्ञानी है, इसलिए अपने अज्ञानभावक द्वारा इसमें निमित्त हो रहा है। अनादि कालसे जीव- कर्मों के संयोगका यही कारण है । वे अज्ञानभाव कौन कौन हैं जिनके कारण जीवका कर्मेकेि साथ संयोग होता है इस प्रश्नका समाधान करते हुए आचार्येने वे पाँच प्रकारके बतलाये हैं- मिध्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग । किन्हीं किन्हीं आचार्योंने प्रमादका कपायमें अन्तर्भाव करके मुख्यरूपसे चार कारण बतलाये हैं । श्री षट्खंडागमके वेदनाखण्ड प्रत्ययविधान अनुयोगद्वार में इसका विचार करते हुए नैगम, संग्रह और व्यवहार नयकी अपेक्षा बन्धके प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, (माप), मेय, मोष, मिथ्याज्ञान और मिथ्या दर्शनका निर्देश करके अन्तमें बतलाया है कि ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योगसे तथा स्थितिवन्ध और अनुभागबन्ध कषायसे होता है । इसका तात्पर्य यह है कि योगमें जैसी हानि - वृद्धि होती है उसके अनुसार होनाधिक प्रदेशबन्ध होता है और कषाय में जैसी हानि -वृद्धि होती है उसके अनुसार हीनाधिक स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। प्रकृतिबन्ध में उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट जघन्य और अजघन्य भेद सम्भव नहीं हैं, इसलिए योगके अनुसार उसका हीनाधिक बन्ध होनेका प्रश्न ही नहीं उठता।

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