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420 कानजीस्वामि-अभिनन्दन ग्रंथ
नियमको स्वीकार करने पर एक दूसरा प्रश्न उठता है कि जब प्राणियोंकी मृत्यु अनिवार्य है तो जो दूसरेके वधमें अपनी असावधानीके कारण निमित्त होता है वह हिंसक क्यों ? दूसरे प्राणी अपने आयुकर्मके सद्भावमें जीवित रहते हैं और उसका क्षय होने पर मरते हैं । जब यह जीवन-मरणका नियम है तब वस्तुतः न तो कोई उनका हिंसक है और न कोई उनकी रक्षा कर सकता है। आचार्य कुंदकुंदने भी समयसारके बंधाधिकारमें यही प्रतिपादन किया है। ऐसी अवस्थामें अन्य सब अहिंसक ही हैं, उन्हें न तो हिंसाके फलस्वरूप पापबन्ध होना चाहिए और न दया या रक्षाभावके फलस्वरूप पुण्यबन्ध ही होना चाहिए ।
___ उत्तर यह है कि भगवान् कुन्दकुन्दने जो लिखा है वह प्राणीके मिथ्या अहंकारको छुड़ाने के लिए लिखा है। अज्ञानी प्राणी परका कर्त्ता स्वयंको मानता है और अपना कर्ता भी परको मान लेता है। परके कतृत्वके मिथ्याभावके कारण वह अपने कर्तृत्वको भूला हुआ है और अपनी मूलको न समझ पानेसे अपराधसे मुक्त नहीं हो पाता । इसलिए उन्होंने सिद्धान्तका रहस्य खोला है । वे लिखते हैं कि जीव अपने असन् परिणामका स्वयं कर्ता होनेसे स्वयं हिंसक है। भले ही उसके फलस्वरूप परकी मृत्यु हुई हो और उसमें वह निमित्त हुआ हो । किसीकी मृत्युको निमित्त बन जाने मात्रसे हिंसक नहीं है, हिंसक वह इसलिए है कि उमका निज उपादान विकारी हुआ है। अपने विकारी उपादानको ओर दृष्टिपात न करने वाला परकी हिंसाकी निमित्तताको अचाने मात्रसे अपनेको अहिंसक मानकर धोखमें पड़ता है, पर वह तो अपने विकारी परिणामोंके कारण उस समय भी हिंसक है। श्री अमृतचन्द्र आचार्थने समयसारकी नं. २६२ की गाथाकी टीकामें यह स्पष्टीकरण किया है। वे लिखते हैं
परजीवानां स्वकर्मोदयवैचित्र्यवशेन प्राणव्यपरोपः कदाचित् भवतु कदाचिन्म। भवतु । य एवं हिनस्मि इत्यहंकाररसनिर्भरः हिंसायामध्यवसायः स एव निश्चयतः बन्धहेतुः, निश्चयतः परभावस्य प्राणव्यपरोपणस्य परेण कर्तुमशक्यत्वात ।।
अपने अपने कर्मके उदयकी विचित्रतासे पर जीवोंका घातक कभी हो या कभी न हो, दोनों संभव हैं। 'मैं मारता हूं' ऐसा जो अंकाररससे भग हुआ हिंसा परिणाम है वह परिणाम ही परमार्थसे कर्मबन्धका कारण है। निश्चयसे दूसरेके प्राणक घात दूसरा नहीं कर सकता।
तात्पर्य यह है कि अपने हिंसक परिणाभोंसे जीव हिंसक है और पापबन्ध करता है। परका घात होना, न होना उसके आयु कर्मके सद्भाव और भयपर अवलम्बित है। परके घ तमें हमारी योगप्रवृत्ति निमित्त हो जाती है सो निमित्तको कर्त्ता कहना उपचार है, परमार्थ नहीं।
यहां एक प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि अपने ही रागादि भाव बंधके कारण है. पर नहीं तब परके त्यागका उपदेश चारित्र धारण हेतु क्यों दिया जाता है ? 'तू परकी हिंसा मत कर, स्थावर-जंगम प्राणियोंपर दया कर' ऐसा शास्त्रों में उपदेश है। क्या यह उपदेश मिथ्या है ?
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