Book Title: Jayantsensuri Abhinandan Granth
Author(s): Surendra Lodha
Publisher: Jayantsensuri Abhinandan Granth Prakashan Samiti

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Page 20
________________ १९ वायंगण (बैगन) वनस्पतिजन्य भी नहीं होता। वह मुर्गी के गर्भ में रक्त व वीर्यरससे २० अमुणिअ नामईं पुप्फ फलाई (अनजाने फल-पुष्प) बढ़ता है। अत: वह शाकाहार नहीं है। मांस भक्षण में अत्यन्त जीव २१ तुच्छ फलं हिंसा जानकर उसका त्याग करना हितावह है। २२ चलिअरसं (चलितरस) वज्जे बावीसं॥ (मक्खन) - मक्खनको मही (छाछ) मेंसे बाहर निकालने के बाद (१ से ५) उदुंबर-गूलर आदि फल - (१) वटवृक्ष (२) पीपल (३) उसमें उसी रंगके त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। मक्खन खानेसे जीव पिलंखण (४) काला उदुंबर और (५) गूलर। इन पाँचों के फल विकार वासनासे उत्तेजित होता है। चारित्र्यकी हानि होती है। बासी अभक्ष्य हैं। इनमें अनगिनत बीज होते हैं। असंख्य सूक्ष्म त्रस जीव मक्खन में हर पल रसज जीवोंकी उत्पत्ति होती रहती है। इसे खानेसे भी होते हैं। इन्हें खानेसे न तृप्ति मिलती है न शक्ति और यदि इन अनेक बीमारियाँ भी हो जाती हैं। अत: मक्खन खानेका त्याग करना फलोंमें के सूक्ष्म जीव मस्तिष्क में प्रवेश कर जाएं तो मृत्यु भी हो ही श्रेयस्कर है। सकती है। जीव तंतुओके कारण रोगोत्पत्ति की तो शतप्रतिशत आशंका इसतरह शहद, मदिरा, मांस और मक्खन ये चारों विकार भावों होती है। अत: इन पाँचोंका त्याग करना चाहिए। के वर्धक और आत्मगुणों के घातक हैं। अतः इन का हमेशा के लिए (६) शहद - कुंता, मक्खियाँ, भवरे आदिकी लार एवं वमनसे शहद त्याग करना चाहिए। तैयार होता है। मधुमक्खी फूलसे रस चूसकर उसका छत्ते में वमन (१०) बर्फ (हिम) - छाने अनछाने पानीको जमाकर या फ्रीज में करती है। छत्तेके नीचे धुंआ करके वहाँ से मधुमक्खियोंको उड़ाया रखकर बर्फ बनाया जाता है। जिसके कणकणमें असंख्य जीव हैं। जाता है। तत्पश्चात् उस छत्तेको निचोड़कर शहद निकाला जाता है। बर्फ जीवन निर्वाह के लिए भी आवश्यक नहीं है। अत: बर्फ से निचोड़नेकी इस क्रिया में कई अशक्त मधुमक्खियाँ एवं उनके अंडे बननेवाले शर्बत, आइसक्रीम, आइसफुट आदि सभी पदार्थ अभक्ष्य नष्ट हो जाते हैं और सभीकी अशुचि शहद में मिल जाती है तथा हैं। इनके भक्षण से मंदाग्नि, अजीर्ण आदि रोगों की उत्पत्ति होती उसमें अनेक प्रकार के रसज जीवों की भी उत्पत्ति होती है। इस तरह है। बर्फ आरोग्य का दुश्मन है। फ्रीज का पेय पदार्थ भी हानिकारक शहद अनेक जीव के हिंसाका कारण होनेसे खाने में इसका त्याग करना होता है। अतः इनका त्याग भी उपयोगी होता है। ही श्रेयस्कर है। दवाई के प्रयोग में घी, दूध, शक्कर, मुरब्बा आदि (११) जहर (विष) - जहर खनिज, प्राणिज, वनस्पतिज और मिश्र से काम चल सकता है, अतः शहद का उपयोग दवा लेने तक में ऐसे चार प्रकार का होता है। संखिया, बच्छनाग, तालपुर, अफीम, न करना हितावह है। हरताल धतूरा आदि सभी विषयुक्त रसायन हैं, जिन्हें खानेसे मनुष्य (७) शराम (मदिरा)- मदिरा शराब, सुरा, द्राक्षासव, ब्रांडी, भांग, की तत्काल मृत्यु भी हो सकती है। ये अन्य जीवोंका भी नाश करते वाईन आदिके नामसे पहचानी जाती है। शराब बनाने के लिए गुड़, हैं। श्रम, दाह, कंठशोध इत्यादि रोगों को उत्पन्न करते हैं। बीड़ी, अंगूर, महुआ आदिको सड़ाया जाता है, उबाला जाता है। इसतरह तम्बाकू, गांजा, चरस, सिगरेट आदि में जो विष है वह मनुष्य के उसमें उत्पन्न अनगिनत त्रस जीवों की हिंसा होती है तथा शराब तैयार शरीर में प्रवेश करके अल्सर, केन्सर, टी.बी. आदि रोगोंको उत्पन्न होनेके बाद भी उसमें अनेक त्रस जीव उत्पन्न होते हैं और उसीमें करता है। विष स्व और पर का घातक है। अत: त्याज्य है। मरते हैं। शराब पीने के बाद मनुष्य अपनी सुध-बुध भी खो बैठता (१२) ओला - ओले में कोमल और कच्चा जमा हुआ पानी है, है। धनकी हानि होती है और काम, क्रोध की वृद्धि होती है। पागलपन जो वर्षाऋतु में गिरता है। उसके खानेका कोई प्रयोजन नहीं है। बर्फ प्रगट होता है। आरोग्य का विनाश होता है। अविचार, अनाचार, में जितने दोष होते हैं, उतनेही इसमें भी होते हैं, ऐसा जानकर इसका व्यभिचार का प्रादुर्भाव होता है। आयुष्यको धक्का लगता है। विवेक, त्याग करना चाहिए। संयम, ज्ञानादि गुणोंका नाश होता है। फलतः जीवन बरबाद होता (१३) मिट्टी - मिट्टी के कणकणमें असंख्य पृथ्वीकाय के जीव होते है। अत: इसका त्याग करना ही श्रेयस्कर है। हैं। इसके भक्षणसे पथरी, पांडुरोग, सेप्टिक, पेचिश जैसी भयंकर (८) मांस - यह पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसासे प्राप्त होता है। मांसमें बीमारियाँ होती हैं। किसी मिट्टी में मेंढक उत्पन्न करने की शक्यता अनंतकाय के जीव, त्रस जीव एवं समुर्छिम जीवों की उत्पत्ति होती होती है। अत: उससे पेट में मेंढक उत्पन्न हो जाएँ तो मरणान्त वेदना है। इसके भक्षण से मनुष्य की प्रवृत्ति तामसी बनती है और वह क्रूर सहन करनी पड़ती है। एवं आततायी बनता है। केन्सर आदि भयंकर रोग भी होने की (१४) रात्रि-भोजन - यह नरकका प्रथम द्वार है। रातको अनेक संभावना रहती है। कोमलता एवं करुणा का नाश होता है। पंचेन्द्रिय सूक्ष्म जंतु उत्पन्न होते हैं तथा अनेक जीव अपनी खूराक लेने के जीवों के वधसे नरक गतिका आयुष्य बंधता है, जिससे नरकमें असंख्य लिए भी उड़ते हैं। रात्रि भोजन के समय उन जीवों की हिंसा होती वर्षोंतक अपार वेदना भोगनी पड़ती है। अनेक धर्मशास्त्र दया और है। विशेष यह है कि यदि रात्रि भोजन करते समय खाने में आ जाएँ अहिंसा धर्मका विधान करते हैं, उनका उल्लंघन होता है। तो जूं से जलोदर, मर्खी से उल्टी, चींटीसे मति मंदता, मकड़ीसे मांस खानेके त्यागकी तरह अंडे खानेकाभी त्याग करना चाहिए, कुष्ठ रोग, बिच्छुके काटेसे तालुवेध, छिपकली की लारसे गंभीर क्योंकि अंडे में पंचेन्द्रिय जीवों का गर्भ रस-रूप में रहता है, अत: बीमारी, मच्छर से बुखार, सर्पक जहरसे मृत्यु बालसे स्वरभंग आदि उसके खाने में भी मांस जितना दोष लगाता है। अंडे में कोलेस्टेरोल बीमारियाँ होती हैं तथा मरण तक आ सकता है। रात्रि-भोजन के से हृदयकी बीमारी होती है, किडनी के रोग होते हैं, कफ बढ़ता है समय नरक व तिर्यंच गतिका आयुष्य बंधता है। आरोग्य की हानि तथा टी.बी., संग्रहणी आदि रोगों का शिकार बनकर जीवन भर होती है। अजीर्ण होता है। काम वासना जागृत होती है। प्रमाद बढ़ता भुगतना पड़ता है। यह तर्कसिद्ध है कि अंडा निर्जीव नहीं होता तथा है। इसतरह इहलोक परलोक के अनेक दोषोंको ध्यान में रखकर श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथ/वाचना लोभ मोह अरु राग ही, उत्पादक हैं द्वेष । जयन्तसेन अनुचित यह, करना त्याग हमेश ॥ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only

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