Book Title: Jainvrat Katha Sangrah
Author(s): Deepchand Varni
Publisher: Digambar Jain Pustakalay

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Page 11
________________ पीठिका [५ ******************************** बडी आयु होती हैं। आहार बहुत कम होता हैं। ये सब समान (राजा प्रजाके भेद रहित) होते हैं। उनको सब प्रकारकी सामग्री कल्पवृक्षो द्वारा प्राप्त होती हैं, इसलिये व्यापार धंधा आदिको झंझटसे बचे रहते हैं। इस प्रकार वे वहांके जीव आयु पूर्ण कर मंद कषायोंके कारण देवगतिको प्राप्त होते हैं। भरत और ऐरायत क्षेत्रोंके आर्य खण्डोंमें उत्सर्पिणी य अवसर्पिणी (कल्प काल) के छ: काल (सुखमा सुखमा. सुखमा, सुखमा दुःखमा, दुःखमा सुखमा, दुःखमा और दुःखमा दुःखमा) की प्रवृत्ति होती है, सो इनमें भी प्रथमके तीन कालोंमें • तो भोगभूमि की ही रीति प्रचलित रहती हैं। शेष तीन काल कर्मभूमिके होते है, इसलिये इन शेष कालोंमें चौथा (दुःखमा सुखमा) काल है, जिसमें वेसठ शलाका आदि महा पुरुष उत्पन्न होते हैं। पांचवे और छठवें कालमें क्रमसे आयु काय, बल, वीर्य घट जाता है और इन कालोंमें कोई भी जीव मोक्ष प्रास नहीं कर सकता है। विदेह क्षेत्रोंमें ऐसी कालचक्रकी फिरन नहीं होती है। यहां तो सदैव चोथा काल रहता है और कमसे कम २० तथा अधिकसे अधिक १६० श्री तीर्थंकर भगवान तथा अनेकों सामान्य केपली और मुनि श्रावक आदि विधमान रहते हैं और इसलिये सदैव ही मोक्षमार्गका उपदेश व साधन रहनेसे जीय मोक्ष प्राप्त करते रहते हैं। जिन क्षेत्रोंमें रहकर जीय आत्म धर्मको प्राप्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं अथया जिनमें मनुष्य असि, मसि, कृषि, याणिज्य, शिल्प व विधादि द्वारा आजीविका करके जीवन निर्वाह करते हैं, वे कर्मभूमिज PLE. । ..

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