________________
ता. १-१-३४.
जैन युग-
इन्तजामिया आर्डर संवत १९८९
संवत् १९७६ में हीरालाल मुखबिर ने दरखास्त की कि श्री ऋषभदेवजी में जल दूध व केशर प्रक्षाल पूजन का रुपया पुजारी लेते हैं सो इनकी तनखाह बंध जानी चाहिये जिस पर धुलेव कुमेटी में राय तलब की गई तो राय मेम्बशन कमीशन वो उजरांत सेवकान वो बाद मुलाहजे कांगजात मिसल लिखी जाये है कि मायने कांगजात वो मिसल वो उजरात सेवगान वा राय मेम्बरान कमीशन से जाहिर है कि हमेशा से यात्री लोग जल केसर दूध प्रक्षाल वो आखडी का रुपया जो देते हैं वो पुजारी ही लेते आये हैं सिर्फ दो मेम्बरान ने इस सीगे की आमदनी ज्यादह हो जाने के वास्तं बड़ा हिस्सा खिलाफ अमलदरामद साबका मंदिर के भंडार में जमा होने की दी है मगर साथ ही चंद्र मेम्बरान की यह राय है कि सेवक इस रकम को बढ़ाने में यात्रियों को तंग न करें और तंग नहीं करने बाबत पहिले संवत् १९०३ में सेवकों ने वायदा कर लिया है लिहाजा हालात पर गौर करने से बनजर इनसाफ मालूम होता है कि आयन्दा के वास्ते नीचे लिखे मुताबिक तरीका रखा जाये।
(१) प्रक्षाल जल दूध केसर वो आखर्डी की बोली को जिस कदर रकम आये वो आज तक जैसे सेवक देते रहे हैं वैसे ही लेते रहें इस में से कोई हिस्सा भंडार जमा न हो.
(२) इस अन्देशे को दूर करने वास्ते कि सेवक इस रकम को बढाने की नीयत से यात्रियों को तंग नहीं करें ऐसा तरीका आयन्दा के वास्ते रखा जाये कि बोली सरकारी आदमी व राजा सेवकान बोला करें ताकि यात्रियों को तंग करने का मौका न मिले संवत १९८९ सावन सुदी १२.
यह है मेवाड न्याय ! जी चाहा जिधर घुमा दिया. कानून है न कायदा इस वर्ष की छान बीन के बाद जो पहिले अंतिम फैसला हो चुका था उस की तामील के दौरान में ही उसके खिलाफ नया इकतरफा हुकम भी आ टपका।
फरीकन का परिश्रम और रुपया महाराणाओं के फैसले सब धूल में मिला दिये. समझ में नहीं आता कि ऐसा इकतरफा हुकम निकालने की जरूरत ही क्यों पेशआई. फरीकन को सवृत देने वो फैसला और अपील के हक से क्यों महरूम किया गया.
क्या इसी का नाम न्याय है।
૧૦૫
आज तक जैसे सेवक लेते रहे वैसे ही लेते रहें। आज तक तो पिछले संवत १९८७ के फैसले अनुसार १ ) एक रुपया रोज लेते थे आगे लिखा है। उस में से कोई हिस्सा भंडार जमा ना हो। यानी १) तो उन्हें मिलता ही रहे उस में से कोई हिस्सा मंदार जमा ना हो पर अमलदरामद इसके खिलाफ है. यदि कुछ ही आय दिलाना था तो आज तक शब्द लिखने की जरूरत ना थी सं. १९१७ से या १९३४ से सं. १९७६ तक या १९८७ लिखना था इसी से लोग कहते हैं कि ऐसे विशाल राज्य में किसी कानूनी मशीर की जरूरत थी ।
है पर उसकी आदि तो बताना था. हमेशा से मतलब अनादिका इसी हुकम में एक शब्द हमेशा से लेते रहे और आया
है या मन्दिर बना जब का है या उदयपुर बसा तब का है. आखिर कोई समय तो होना चाहिये यदि संवत १७ से ८७ तक का है तो वो साफ लिखना था प्रथम तो संवत १९१७ से १९३४ तक यही आमदनी क्या सभी मंदिर की आमदनी पण्डों का गबन कर जाना स्टेट भी स्वीकार करती है वो सभी आमदनी क्यों नहीं देदी यदि अरसे तक बुरा काम करने से नेक नहीं हो जाता तो यहीं क्यों हो गया इसे भी तो रोकना था जब संवत १९३४ में इन्तजाम स्टेट के हाथ में देड़िया तो बाद की जिम्मेदारी जैन समाज की क्यों कर हो सकती है वो तो स्टेट के भरोसे बेफिकर था स्टेट का फर्ज था कि वह हरेक आमद की रक्षा करता. मान लो पण्डों ने ६०-७० वर्ष भी इसी आमद को खाया हालांकि लगातार चिलानागा बीली का बुलाना किसी तहरीर से साबित नहीं है तो ऐसा करने को यानी इस आमद खाने वास्ते पन्डों के पास जैनियों की या स्टेट की कोई आज्ञा नहीं थी. बिला आज्ञा मालिक का पैसा खा जाना एक प्रकार का गबन है चाहे वो एक दिन करे या बहुत वर्ष तक करे बराबर सजा के पात्र हैं क्या एक कातिल ६०-७० वर्ष बराबर कतल करता रहा हो पकड़ कर कोर्ट के सामने आये तो सजा नहीं पायेगा. क्या सरकारी अहलकार
और बढे २ हाकिम ६०-७० वर्षों में रिशवत खाते बूढ़े हो
गये हों जब कभी अदालत के सामने आयेंगे वो जायेंगे यदि नहीं तो घर में न्याय का यह ढंग और जैन तीर्थ पर यह रंग यह कहां का न्याय इसी वास्तं कहना पडता हैं जरा मेवाडी राज्य के न्याय का नमृना भी देखली ।
भवदीय, गोपीचन्द एडवोकेट
प्रधान,
नेमदास बी. ए. मंत्री
जरा हुकम की तहरीर पर भी नजर डालिये कितनी सुन्दर
है. करना कुछ चाहते हैं लिखा कुछ जाता है उस में लिखा है। श्री आत्मानन्द जैन महा सभा (पंजाब) अम्बाला शहर ।