Book Title: Jain Yug 1934
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 112
________________ बम्बई में श्री महावीर जैन विद्यालय, बाबु पन्नालालजी जैन हाई स्कूल और जगह जगह छात्रालय आदि शिक्षण संस्थाएं इस कॉन्फरन्सकी उत्पत्ति के बाद इसीके आन्दोलन और शिक्षण विषयक विचार प्रचारसे निकली हैं। और हिन्दु यूनिवर्सिटीमें इस कॉन्फरन्सने बहुत द्रव्य दिला कर जैन धर्म तथा अध्यापक नियुक्त कराये हैं । अभी वहां पर पंडितवर्य सुखलालजी अध्यापक का कार्य कर रहे हैं। इसमें भी कॉन्फरन्स की प्रयत्नशीलता निमित्तमूत है। यह सब हमारे गौरव का विषय है। इसी प्रकार हमारे विचार से तो स्थान स्थान पर अर्थात् हिन्दु विश्वविद्यालयमें जहां पर कि जन चेभर का प्रबन्ध कर जैन धर्मके अभ्यास की सुव्यवस्था की गई है वहां पर भी विद्यार्थीयों के रहने के लिये महावीर जैन विद्यालय जैसी संस्था खोलकर सुविधा, तथा ऐसे ही बडे बडे स्थलोंमें जहांपर जैन विद्यार्थी कॉलेजों में विद्याभ्यास करने के लिये जाते हैं जैसे कलकत्ता, देहली, आगरा, लाहौर, अजमेर आदि स्थानोंपर महावीर जैन विद्यालय जैसी महा संस्थाए खोलकर जैन विद्यार्थियों को विद्याभ्यास में सुविधाएं पहुचाने का लक्ष श्रीमती कॉन्फरन्सको शीघ्र देना चाहिये। मात्र इनीगिनी जैन संस्थाओं और वह भी अव्यवस्थित संस्थाओं से जैन समाज का उद्धार होना असंभव है। कुछ समय से बाल दीक्षा का प्रश्न ऐसे कुरूपमें निकला है कि जिससे कितने एक प्रतिष्ठित पुरुषों के चित्तभी धार्मिक विद्यालयों की ओर से शिथिल हो गये हैं। हमारे प्रमाद और अज्ञानने शांतिमय, अहिंसामय धर्मके अस्तित्व को अंधकारमें छिश दिया है। आज यदि हम लोगोंमें विवेक होता तो एक क्या अगणित विश्वविद्यालय ( कॉलेज ) जैनियों के दृष्टिगोचर होते। आज जैन समाज में शिक्षण संस्थाओं के अभाव से लाखों जैन विधी बन रहे हैं। हमारे बच्चे अन्य धार्मियों की संस्थाओंमें अभ्यास करने जाते हैं जिनमें हमारे धर्मके उच्छेदक तत्व पढाये जाते हैं । जिसके परिणाम स्वरूप हमारे बच्चे आर्यसमाजी, ईसाई, ब्रह्मसमाजी आदि बन बन कर जैन के कट्टर शत्रु बन जाते हैं । लाला लजपतरायजीने दयानन्द कॉलेजमें यदि अभ्यास न कर किसी जैन कॉलेज में अभ्यास किया होता तो वेद जैन धर्म के तत्वोको समझकर कितने प्रसन्न तथा दृढ़ जैन धर्मानुयायी होते परन्तु अन्य संस्थामें अभ्यास करनेसे वे जैन धर्मके तत्त्वोंको तो कहां समझते उल्टे जैन धर्मके कट्टर शत्रु बन गये। इसी प्रकार एक बेरिस्टर साहिबने आर्य समाज गुरुकुल कांगडीमें विद्याभ्यास किया था. जहांपर जैन तत्त्वोंसे तो वे सर्बथा अपरिचित रहे परन्तु आर्य समाजकें तत्त्वोंसे उनकी आत्माको शांति प्राप्त न हुई जिसके पारणाम स्वरूप वे मुस्लिम हो गये। आर्य समाजादि हिन्दु धर्मोके तो वे विरोधी हो ही गये परन्तु जैन धर्मके तत्वोंका किंचित मात्र भी ज्ञान प्राप्त नहीं किये हुए भी बिना समझे जैन धर्मके घोर विरोधी बनकर जैन धर्मके विरुद्ध प्रचार करते हैं। यह ऊपरोक्त दोनों व्यक्ति जन्मसे जैन थे और पीछे वे अन्यधर्मी बन गये । इससे आप अनुमान लगा सकते हैं कि मात्र साधारण व्यक्ति ही नहीं परन्तु प्रतिष्ठित व्यक्तिभी अपने धर्मके तत्वोंसे अपरिचित रहने के कारणसे विधर्मी बन रहे हैं। कहां तक वर्णन करूँ। एक, दो या सौ, दो सौही नहीं परन्तु लाखों जैन इसी प्रकार प्रति वर्ष विधर्मी बन रहे हैं। सुने होंगे सैंकड़े नाले हज़ारों के । कलेजा थाम लो अब दिल जले फर्याद करते हैं। एक बात आपको स्वानुभवकी सुनाता हूँ । सुनिये मैं अपने इष्टमित्रों के साथ हजारीबाग जिल्ले के एक गांव में गया। और हम सब साथी एक डाक बंगले में ठहरे । मुझे किस्सा सुनने का शौक है इस लिये मैंने वहां के लोगों को पूछा कि तुम लोगों में कोई किस्सा सुनाना जानता हो तो कहों। मुझे जवाब मिला कि

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