Book Title: Jain Yug 1934
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 115
________________ व्यक्ति धन कुवेर क्यों न हो परन्तु आमदनी के सब कारणोंको सर्वथा बन्द कर दें और खर्चही खर्च करता जावे तो एक वर्ष दो वर्ष पांच वर्ष अथवा पच्चीस वर्ष या इससेभी अधिक समयके पश्चात् एक दिन घन हीन अवश्य ही हो जावेगा उसी प्रकार पानीसे भरा हुआ बडा भारी कुंड जिस के पानी आने के सब मागों को बन्द कर एकभी मार्ग खुला न रखो और पानी निकलनेके मार्ग खुले रखे गये हों बह एकन एक दीन अवश्य खाली होगा इसी प्रकार जैन धर्म चाहे कितना विशाल हो चाहे इसके सिद्धांत कितनेही सुन्दर क्यों न हो यदि जैन धर्मानुयायियोंकी संख्या प्रतिवर्ष इसी तेजीसे घटती गई तो यह थोडे समयमें ही नष्ट हो जावेगा "न धर्मो धार्मिकैबिना" इसमें सन्देह ही क्या है और इस वस्तुका विचार करते हुए ही पूर्वाचार्योने हजारों नहीं परन्तु लाखों मनुष्यों को जैन धर्ममें दीक्षित कर जैन संघकी वृद्धि की थी। परन्तु जबसें संकुचितता, शुष्क आचार विचार तथा रूढि चुस्तताने जैन समाजमें अपना अड्डा जमाया है तबसे जैन समाजमें बड़े वेगसे कमी होती जा रही है। और दिन प्रतिदिन यहवेग औरभी अधिक गतिको प्राप्त कर रहा है परन्तु फिरभी हमारे कानोंपर जूं तक नहीं रेंगती। जो जैन समाज एक समय चालीस क्रोड थी आज मात्र इग्यारह लाख है यदि यहि स्थिति रही तो जैन समाजकी क्या स्थिति होगी। यह विचारणीय है । जो कोईभी जैन शासनका हितैषी है चाहे वहत्यागी हों या संसारी उसका प्रथम कर्तव्य है कि जैन धर्मानुयायियोंकी रक्षा वृद्धि के लिये तन मन धन सब कुछ लगा देवें । जहां जहां दुसरे धर्मोवाले अजगरके समान हमारी जातिको निगल रहे है वहां वहां दौड निकलो भूलोंको रास्ते लगाओ गिरोंको उठाकर सीनेसे लगाओ महावीरके शासनमें उनको बनती सहायता देकर स्थिर करो ओर शुद्विद्वारा सर्व मनुष्य जातिके लिये जैन धर्मके दरवाजे खोल दो। मुनि समाज तथा जैन समाजके श्रीमंत यदि इस बातके लिये कटिबद्ध हो जावे यह कार्य बडे वेग और शीघ्रतासे प्रारंभ हो सक्ता है । इस लिये मेरी यह नम्र प्रार्थना है कि ईर्षा द्वेष आदिको तिलांजली देकर समाजको ओर प्रचार कार्य तथा शुद्धिकी और शिघ्र लक्ष देना चाहिये। संघठन. __ जिस जैन धर्मने एक समय भारत वर्षके सर्व धर्मोके झगडेको अपनी सुन्दर स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा शांत करके सारे देशमें साम्यवादका प्रचार कियाथा आज उसी धर्मको संप्रदायों द्वारा स्वयं अनेकताको प्राप्त हुए देखकर किस धर्म प्रेमी तथा समाज प्रेमीको दुःख न होता होगा मैं शास्त्रीय चर्चामे नही पडना चहाता किन्तु मेग हृदय और बुद्धि स्वीकार करती है कि जैनियोंके सभी सम्प्रदायोमें कोई मौलिक भेद नहीं है। सभी वीतरागताके उपासक और भगवान महावीरके परमभक्त हैं तब समझमें नही आता कि हमारा झगड़ा किस बातका है। ___ आज देशके उद्धारके लिये भारतकी प्रत्येक कौमकी मिलनेकी आवश्यक्ता है सम्प्रदायिक भेदभाव नष्ट करने की जरूरत है । पूज्य महात्मा गांधीजीने सर्व धर्म समभावका रूप अपने सामने रक्खा है और उसे जीवनमें उतार कर सच्चे जैनत्वका परिचय दिया है। जिस जातिने उन्नति की है विना संघठनके नही की है एक कबिके शब्दों में: न जाति प्रेम हो जिसमें, मोहब्बत हो न भाईकी । वह मुदी कोम है, जिसमें न बू हो एकताईकी ।। इस लिये यदि हमको अपनी जातिकी वृद्धि देखनेकी आकांक्षा है यदि हम सच्चे जैन हैं यदि वीरके भक्त हैं तो हमें सांप्रदायिक द्वेष का विष निकाल देना चाहिये ।

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