Book Title: Jain Yug 1934
Author(s): Mohanlal Dalichand Desai
Publisher: Jain Shwetambar Conference

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Page 116
________________ १२ बेकारी. औद्योगिक और व्यापारिक प्रगतिमें ही बेकारी दूर करनेका उपाय है । आजकाल मध्यम वर्गकी बडी दुर्दशा है । वह न तो भीख माग सकता है, न शूद्र वर्णकी मजदुरीही कर सकता है और एक भले आदमीकी तरह उसे अपनी इज्जत सुरक्षित रखनी कठिन हो जाति है । जैन समाजका बड़ा भाग इसी मध्यम वर्गका है। इस लिये बेकारीकी समस्या उसके सामने एक जटिल समस्या है। इस समस्याको शीघ्र हल करनेका मार्ग ढूंढ कर अपने स्वधर्मों भाईयों को अपने धर्ममें दृद्ध करिये । धर्मादा खाता. एक तरफ तो हमारे भाई बेकारीसे पीडीत होकर अर्ध मृतके समान जीवन विता रहे हैं दूसरी तरफ धर्मादा खाताका रुपया मारा मारा फिर रहा है। अपवादोंकी बात छोडिये परंतु साधारणतः हमारे धार्मिक द्रव्यकी यही दशा है कि वह जहां जाता है। वहींका हो जाता है। उनकी न कोई व्यवस्था है न कोई पूछ ताछ । इसकी व्यवस्थाभी अबश्य होना चाहिये । बल्की मैं तो यहांतक कहने को तैयार हूँ कि उसके लिये एक कानून बनवाना चाहिये । वक्फ एक्ट की तरह इस कानून के बन जानेसे हमारा धार्मिक कार्य सरल रीतीसे हो सकेंगे। जैन बैंक. इसके द्वाग जैन भाई जो पूंजीके विना मारेमारे फिर रहे हैं उनको पूंजी देकर उनकी बेकारी तो दूरकी ही जावेगी। और इसके द्वारा धर्मादा खाताकी रक्षा और उसके सदुपयोग के लिये जैन बैंक एक असाधारण उपाय है । इस बेंक के होनेसे धार्मिक द्रव्य किसी प्राईवेट जगह रखनेकी आवश्यक्ता न रहेगी। वह द्रव्य जैन बेंकद्वारा जमा रह कर सुरक्षित रह सकेगा। ___ व्यक्तिगत पुस्तकालय. हमें अपनी शक्तिका कोईभी अंश निरुपयोगी नहीं बनाना चाहिये। फिर ज्ञान के अंगोकी निरोपयोगी बनाना तो औरभी बुरी बात है। हमारे यहां उपाश्रय आदिमें व्यक्तिगत पुस्तकालय होते हैं । उनमें पैसा तो लगता है समाजका परन्तु उसका उपयोग किसी एकाद साधुके लिये ही रिझर्व हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप दूसरा कोई उपयोग नहीं कर सकता ज्ञान के साधन यदि व्यक्तिगत हों तो भी उनका सबको उपयोग करने देना उचित है फिर सामाजिक द्रव्यसे बने हुए पुस्तकालयोंका व्यक्तिगत तरह उपयोग करना तथा वर्षों तक उनका निरोपयोगी पडे रहना ज्ञानावरण कर्मक बन्धका हेतु है। अज्ञानको नियंत्रण देना है। हमें इस कुव्यवस्थाको बन्द करना चाहिये । तीर्थोंके झगडे. __ आज हम बालस्य और उपेक्षा से कई तिर्थों को अपने हाथसे खो चुके हैं। हमारी दिगम्बरों के प्रति उदारता का कुपरिणाम यह हुआ कि भाजवे हमारे शत्रु बन कर हमारे तीयोंको हडप करते जा रहे हैं। स्थान स्थान पर झगडे खडे कर हमारे क्रोडों रुपया तथा शक्तिका हास कर रहे हैं। और कुछ मंदिर आदि हमारी समाजकी देख भालके विना दूसरे धर्मावलम्बियोंने कबजे कर लिये हैं। कई स्थानों पर हमारे रखे हुए नौकर, पुजारी, पंडे आज अपनी संपत्ति बनाकर अथवा अपने धर्म देवमूर्तियां बैठा कर हमारे मंदिरों, तीर्थोपर अपना आधिपत्य जमा बैठे हैं। और रहे सहे मंदिरों, धर्मस्थानों, ती पर भी यदि ऐसी ही स्थिति रही तो उनकी रक्षा भी कटिन बन पडेगी।

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