Book Title: Jain Vidya 24 Author(s): Kamalchand Sogani & Others Publisher: Jain Vidya Samsthan View full book textPage 6
________________ प्रकाशकीय जैनविद्या संस्थान की शोधपत्रिका 'जैनविद्या' का यह अंक 'आचार्य प्रभाचन्द्र विशेषांक' के रूप में प्रकाशित कर अत्यन्त प्रसन्नता है। ___ भारतीय दर्शन में 'न्यायविद्या' का एक विशिष्ट स्थान है। जैनदर्शन-परम्परा में भी इसका अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। 'न्यायविद्या' अर्थात् वस्तु के सत्य स्वरूप को देखनेसमझने की विद्या। किसी भी वस्तु, तथ्य, सिद्धांत, मान्यता की सत्यता-समीचीनता को जाँचने-परखने, उसकी निर्दोषता का निर्णय करने की कला है न्यायविद्या। ___ आचार्य प्रभाचन्द्र न्यायविद्या में निष्णात, खण्डन-मण्डन शैली में दक्ष, तर्कशास्त्र की बारीकियों के ज्ञाता, विलक्षण तार्किक, जैनदर्शन के मर्मज्ञ मनीषी थे। इन्होंने धर्म, दर्शन, अध्यात्म, तत्त्वमीमांसा-तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र, व्याकरण, आचारशास्त्र आदि विभिन्न 'विषयों से सम्बन्धित साहित्य सृजनकर अपनी विलक्षण-बुद्धि एवं वैदूष्य की छाप छोड़ी है। आचार्य माणिक्यनन्दि द्वारा रचित न्यायविद्या के सूत्र ग्रन्थ ‘परीक्षामुख' पर आचार्य प्रभाचन्द्र ने 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नाम की 12,000 श्लोकप्रमाण वृहदाकार टीका लिखकर जैन वाङ्मय के भण्डार को अपूर्वता प्रदान की है। यह ग्रन्थ टीका-ग्रन्थ होते हुए भी मौलिक ग्रन्थ जैसा मान्य है, यह जैन न्याय का एक अद्वितीय, अपूर्व, अनूठा एवं अग्रगण्य ग्रन्थ है। ___ आचार्य प्रभाचन्द्र धारा नगरी के राजा भोज (10वीं श.ई.) के द्वारा सम्मानित तथा पूज्य थे। इन्होंने राजा भोज एवं उनके उत्तराधिकारी राजा जयसिंह के शासनकाल में विशाल साहित्य का निर्माण किया। स्पष्ट है कि आचार्य प्रभाचन्द्र का समय ग्यारहवीं शताब्दी ईसवी रहा है। जिन विद्वान लेखकों की रचनाओं से यह अंक साकार हुआ उन सबके प्रति हम आभारी हैं। पत्रिका के सम्पादक, सम्पादक मण्डल के सदस्य, सहयोगी सम्पादक - सभी धन्यवादाह हैं। नरेशकुमार सेठी प्रकाशचन्द्र जैन अध्यक्ष मंत्री प्रबन्धकारिणी कमेटी, दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजीPage Navigation
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