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१०८ / जैनतत्वविद्या
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नौका के छेद होता है, उसी प्रकार जीव के आश्रव होता है। आश्रव जीव का परिणाम है, इसलिए वह जीव है । आश्रव कर्म-बंध का हेतु है, इस दृष्टि से मोक्ष का बाधक । शुभ योग से कर्मों की निर्जरा होती है, इस दृष्टि से वह मोक्ष का साधक है। कर्म-बंधन के जितने द्वार हैं— निमित्त हैं, वे सब आश्रव हैं । प्रमुख रूप से उसके पांच भेद किए जाते हैं ।
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आश्रव के बीस भेदों का उल्लेख भी यत्र-तत्र उपलब्ध होता है । ये भेद विवक्षाकृत हैं। इस वर्गीकरण में पांच मूल के भेद हैं। शेष पन्द्रह योग आश्रव के अवांतर भेद हैं। इन सबका योग में समाहार हो जाता है । इसलिए प्रस्तुत बोल में पांच ही आश्रवों का ग्रहण किया गया है ।
मिथ्यात्व आश्रव
विपरीत तत्त्वश्रद्धा का नाम मिथ्यात्व है । जीव की दृष्टि को विकृत करने वाले मोह-परमाणुओं के उदय से अयथार्थ में यथार्थ और यथार्थ में अयथार्थ की जो प्रतीति होती है, वह मिथ्यात्व आश्रव है । इसके अभिग्रहिक, अनाभिग्रहिक आदि पांच भेद हैं, जिनकी चर्चा प्रथम वर्ग के उन्नीसवें बोल में की जा चुकी है ।
अव्रत आश्रव
है। ये
अत्याग भाव का नाम अव्रत है । इसका संबंध चारित्र मोह के परमाणुओं से परमाणु जब तक सक्रिय रहते हैं, अंश रूप में या संपूर्ण रूप में हिंसा आदि पापकारी प्रवृत्तियों के त्यागने का मनोभाव नहीं बनता । अव्रत आश्रव देशव्रत और सर्वव्रत दोनों का बाधक है ।
प्रमाद आश्रव
अध्यात्म के प्रति होने वाले आन्तरिक अनुत्साह का नाम प्रमाद है। इसका संबंध भी मोह-कर्म के परमाणुओं से है ।
कषाय आश्रव
राग-द्वेषात्मक उत्ताप का नाम कषाय है । चारित्रमोह के परमाणुओं का उदयकाल इसका अस्तित्वकाल है । यह वीतराग चारित्र की उपलब्धि में बाधक है । योग आश्रव
योग का अर्थ है प्रवृत्ति । शरीर, भाषा और मन की शुभ-अशुभ प्रवृत्ति रूप आत्म-परिणति का नाम है योगआश्रव । जब तक प्रवृत्ति है, तब तक बन्धन है । अशुभ योग से अशुभ कर्म का बन्ध होता है और शुभ योग से शुभ कर्म का । योग का सर्वथा निरोध होने से अयोग संवर अथवा शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है ।
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