Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 170
________________ १६८ / जैनतत्त्वविद्या अर्थ में संक्रमण नहीं हो सकता। यह नय पूर्ववर्ती नयों से विशुद्ध है और वस्तु के स्वभावगत वास्तविक धर्म का ग्रहण करता है। एवंभूत नय क्रिया में परिणत अर्थ को ही उस शब्द का वाच्य मानने वाली विचारधारा एवंभूत नय है । यह नय शब्द की व्युत्पत्ति और निरुक्त तक पहुंचकर भी रुकता नहीं है। यह कहता है कि जिस शब्द की जो व्युत्पत्ति है, वर्तमान में वही क्रिया हो रही हो तो वहां उस शब्द का प्रयोग सार्थक है, अन्यथा नहीं । जैसे—भिक्षु भिक्षा करते समय ही भिक्षु होता है । तपस्वी तपस्या करते समय ही तपस्वी होता है । परिव्राजक परिव्रज्या करते समय ही परिव्राजक होता है । ध्यान करते समय कोई मुनि प्रवचनकार नहीं होता और प्रवचन करते समय कोई मुनि ध्यानी नहीं होता। इस नय के अनुसार अतीत और भविष्य की क्रिया के आधार पर शब्द का प्रयोग गलत हो जाता है। केवल वर्तमान काल और वर्तमान क्रिया ही इस नय का विषय बनती है। वस्तु-बोध की अनन्त दृष्टियों का उपर्युक्त सात दृष्टियों में वर्गीकरण करने के कारण नय सात ही माने गए हैं। यह वर्गीकरण पूर्णरूप से व्यावहारिक है और इसके द्वारा जगत् का व्यवहार सम्यक् रूप से संचालित हो सकता है। २०. नय के दो प्रकार हैं१. निश्चय २. व्यवहार किसी भी तत्त्व को समझने या समझाने की दो दृष्टियां होती हैं। कोई व्यक्ति कुछ समझना चाहता हो या दूसरों को समझाना चाहता हो, उसे इन्हीं दो दृष्टियों का सहारा खोजना होगा। पहली दृष्टि वास्तविक है और दूसरी काल्पनिक है। पहली दृष्टि को निश्चयनय या परमार्थ दृष्टि कहा जाता है और दूसरी दृष्टि व्यवहार दृष्टि शब्दों से पहचानी जााती है । इस बोल में इन्हीं दो नयों का उल्लेख है। निश्चय नय का विषय है यथार्थ का प्रतिपादन । वर्तमान में कोई वस्तु उस रूप में अभिव्यक्त न हो, किन्तु वास्तव में उसकी सत्ता है तो उसका प्रतिपादन निश्चय दृष्टि से ही किया जा सकता है। व्यवहार नय ऊपर-ऊपर से विचार करता है। वह लोक-मान्यता के आधार पर तत्त्व का प्रतिपादन करता है । वास्तविकता न होने पर भी लोकमान्यता में जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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