Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 174
________________ १७२ / जैनतत्त्वविद्या २२. स्याद्वाद के सात प्रकार (सप्तभंगी) हैं१. स्यात् अस्ति ५. स्यात् अस्ति, स्यात् अवक्तव्य २. स्यात् नास्ति ६. स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य ३. स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति ७. स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, ४. स्यात् अवक्तव्य स्यात् अवक्तव्य स्याद्वाद और अनेकान्तवाद—जैन दर्शन के दो विशिष्ट शब्द हैं। अनेकान्त सिद्धान्त है और स्याद्वाद उसके निरूपण की पद्धति है । अनेकान्त का अर्थ है-एक वस्तु में अनेक विरोधी धर्मों का स्वीकार । स्याद्वाद का अर्थ है-विभिन्न अपेक्षाओं से वस्तुगत अनेक धर्मों का प्रतिपादन। इसका शाब्दिक अर्थ इस प्रकार किया जा सकता है-स्यात्-कथंचित् अर्थात् किसी अपेक्षा से, वाद अर्थात् बोलना। पिछले बोलों में विवेचित नय, निक्षेप आदि स्याद्वाद् के ही अंग हैं। इन सबको समझने और प्रयोग में लेने से तत्त्वचिन्तन और व्यवहार-निर्वहन-इन दोनों कामों में बहुत सुविधा हो जाती है। प्रस्तुत बोल में स्याद्वाद के सात प्रकार, भंग या विकल्प बतलाए गए हैं स्यात् अस्ति-स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से हर वस्तु का अस्तित्व होता है। संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है,जो अस्तित्ववान् नहीं है। क्योंकि अस्तित्व के अभाव में वह और होगा ही क्या? किन्तु अस्तित्व के साथ-साथ स्यात् शब्द इस बात का द्योतक है कि उसमें अस्तित्व धर्म तो है ही, नास्तित्व भी है। उसे नहीं समझा जाएगा तो वस्तु का बोध पूर्ण नहीं होगा। स्यात् नास्ति-जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से अस्तित्ववान् है, वैसे ही वह दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से नहीं भी है। नास्तित्व के बिना अस्तित्व हो ही नहीं सकता। अस्तित्व और नास्तित्व के सहावस्थान—एक साथ उपस्थित रहने को एक उदाहरण से समझा जा सकता है, जैसे-हमारे सामने एक घड़ा है । उसमें अस्ति धर्म और नास्ति धर्म की एक साथ उपस्थिति इस प्रकार घटित होती है द्रव्य- घड़ा मिट्टी का है, सोने का नहीं है। क्षेत्र- घड़ा अहमदाबाद का बना हुआ है, कलकत्ता का नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208