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१७४ / जैनतत्त्वविद्या
२३. नास्ति (अभाव) के चार प्रकार हैं१. प्राग् अभाव ३. इतरेतर अभाव
२. प्रध्वंस अभाव ४. अत्यन्त अभाव संसार का हर पदार्थ अस्तित्ववान् होता है। वैसे ही नास्तित्ववान् भी होता है। वर्तमान पर्याय का उसमें अस्तित्व है, शेष सब पर्यायों का नास्तित्व है । अस्तित्व
और नास्तित्व का मिला-जुला रूप ही वस्तु है। नास्ति के लिए दार्शनिक ग्रन्थों में अभाव शब्द का प्रयोग अधिक मिलता है।
किसी भी वस्तु के स्वरूप को सिद्ध करने के लिए भाव का जितना महत्त्वपूर्ण स्थान है, अभाव का भी उससे कम नहीं है । भाव के बिना वस्तु की स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। वैसे ही अभाव के बिना भी नहीं होती। यदि हम वस्तु के अभाव रूप को स्वीकार न करें तो उसमें किसी प्रकार के परिवर्तन की बात घटित नहीं हो सकती। परिवर्तन का अर्थ है—एक ही आश्रय में भाव और अभाव की उपस्थिति । संसार का कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है, जो सदा एक सरीखा रहे । वह बनता भी है, मिटता भी है, पर उसकी सत्ता समाप्त नहीं होती। अभाव को स्वीकार किए बिना बनने और मिटने वाली बात समझ में नहीं आती ।
__यदि अभाव को न माना जाए तो वस्तु में किसी प्रकार का विकार नहीं होगा। उसका अन्त नहीं होगा। वह सर्वात्मक बन जाएगी और चेतन, अचेतन का भेद समाप्त हो जाएगा। इसलिए अभाव के चार प्रकार बतलाए गए हैंप्राग अभाव
कोई भी कार्य अपनी उत्पत्ति से पहले नहीं होता। इसका अर्थ यह हुआ कि उत्पत्ति से पहले कारण में कार्य का अभाव होता है। इसका नाम प्राग् अभाव है, जैसे—दूध में दही का न होना । इस अभाव की आदि तो नहीं है, पर दूध से दही बनते ही उसका अन्त हो जाता है । इस दृष्टि से यह अनादि सान्त है। प्रध्वंस अभाव
कार्य की उत्पत्ति के बाद उसके विनाश से होने वाले अभाव का नाम प्रध्वंस अभाव है। जैसे-दही से छाछ बना लेने पर छाछ में दही का न होना । इस अभाव की आदि तो है, पर इसका अन्त नहीं होता।
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