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१५४ / जैनतत्वविद्या तत्काल ज्ञान हो जाता है, वह औत्पत्तिकी बुद्धि है। वैनयिकी
विनय का अर्थ है विधिपूर्वक शिक्षा । शिक्षा से उत्पन्न होने वाली बुद्धि वैनयिकी कहलाती है। कार्मिकी (कर्मजा)
कर्म का अर्थ है अभ्यास। अभ्यास करते-करते जो बुद्धि पैदा होती है, वह कार्मिकी कहलाती है।
कर्म दो प्रकार का होता है—सर्वकालिक और कादाचित्क । सर्वकालिक कर्म 'कर्म' कहलाता है और कादाचित्क कर्म 'शिल्प' कहलाता है। दूसरे शब्दों में जिस कर्म का अभ्यास आचार्य के सानिध्य में न कर अपने आप किया जाए, वह कर्म कहलाता है और जिस कर्म का अभ्यास आचार्य के सानिध्य में किया जाए, वह शिल्प कहलाता है। पारिणामिकी
अवस्था बढ़ने के साथ-साथ जो नाना प्रकार के अनुभव होते हैं, उनसे उत्पन्न होने वाली बुद्धि पारिणामिकी कहलाती है। औत्यत्तिकी बुद्धि का उदाहरण
उज्जयिनी नगरी के पास नटों का एक गांव था। वहां भरत नाम का नट रहता था। उसका एक पुत्र था। नाम था उसका रोहक; वह बुद्धिमान था और सूझबूझ का धनी था। उज्जयिनी का राजा भी उसकी बुद्धि से प्रभावित था।
एक बार राजा ने मरणासन्न हाथी को नटों के पास भिजवाया। राजा ने कहा—इसकी अच्छी सेवा करो। प्रतिदिन इसके संवाद मेरे पास पहुंचाओ। पर यह मत कहना कि हाथी मर गया है। अन्यथा दण्ड दिया जाएगा।
नट अच्छी प्रकार से हाथी की देखभाल करने लगे। पूरी जागरूकता के बावजूद एक दिन वह मर गया। नट घबराए। किंतु रोहक ने उनको आश्वस्त कर दिया। रोहक के निर्देशानुसार कुछ नट राजा के पास जाकर बोले-महाराज ! आज हाथी न कुछ खाता है, न पीता है, न उठता है, न घूमता है और न सांस लेता है।
राजा कुपित होकर बोला—तो क्या हाथी मर गया?
नटों ने कहा--राजन् ! हम यह बात नहीं कह सकते । ऐसा तो आप ही कह सकते हैं।
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