________________
वर्ग ४, बोल १७ / १६१ व्यक्ति थीसिस लिख सकते हैं । जैन आगमों का मूल भाग 'द्वादशांगी' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त जितने आगम हैं, उनका वर्गीकरण उपांग, मूल, छेद, आवश्यक, प्रकीर्णक आदि के रूप में है। प्रस्तुत बोल में उपांग, मूल, छेद और आवश्यक सूत्र का संकलन किया गया है।
उपांग का प्राचीन नाम अंगबाह्य था। उत्तरवर्ती वर्गीकरण में अंगबाह्य के स्थान पर उपांग नाम का उल्लेख हुआ है । यदि अंगबाह्य आगमों के लिए सामान्यतः उपांग शब्द का प्रयोग होता तो उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक आदि विभाग करने की अपेक्षा ही नहीं रहती।
अंगश्रुत बारह हैं और उपांगश्रुत भी बारह हैं। उस संख्या की समानता को ध्यान में रखकर प्राचीन आचार्यों ने अंग और उपांग श्रुत की संबंध-योजना भी की है। जैसे
आचारांग औपपातिक सूत्रकृतांग
राजप्रश्नीय स्थानांग जीवाजीवाभिगम आदि। दिगंबर साहित्य में उपांग शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। श्वेतांबर साहित्य में उपांग शब्द का प्रचलन है, वह श्रुतपुरुष की कल्पना के साथ जुड़ा हुआ है, ऐसा प्रतीत होता है । शरीर में सिर, ग्रीवा, हाथ, नाक आदि मुख्य अंगों के रूप में अंगप्रविष्ट आगम और कान, आंख, नाक आदि उपांगों के रूप में उपांग आगमों की संगति बिठाई गई है । अंग और उपांग श्रुत की संबंध-योजना का निश्चित आधार प्राप्त होने पर भी इनमें प्रतिपादित विषयों की भिन्नता के आधार पर इस संबंध में गंभीर शोध की जरूरत है।
१७. प्रत्याख्यान के दस प्रकार हैं१. नवकारसी ६. निर्विगय २. प्रहर
७. आयम्बिल ३. पुरिमार्ध ८. उपवास (चउत्थभत्त) ४. एकाशन
९. दिवसचरिम ५. एकस्थान
१०. अभिग्रह प्रत्याख्यान का अर्थ है छोड़ना । वस्तु और काल की अपेक्षा से प्रत्याख्यान के अनेक प्रकार हो सकते हैं। भगवती सूत्र में दस प्रत्याख्यानों की चर्चा है। वहां
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org