Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 166
________________ १६४ / जैनतत्त्वविद्या श्रुत-व्यवहार बृहत्कल्प, व्यवहार आदि शास्त्रों के ज्ञाता आचार्यों द्वारा प्रवर्तित व्यवहार श्रुत-व्यवहार कहलाता है। आगम-पुरुष की अनुपस्थिति में संघीय व्यवस्था के संचालन का आधार श्रुत-व्यवहार होता है । जो मुनि उक्त सूत्रों का गहराई से अवगाहन कर चुका है, वह प्रायश्चित्त आदि का विधान करता है। आज्ञा-व्यवहार दो गीतार्थ आचार्य भिन्न-भिन्न देशों में विहार कर रहे हों। वे परस्पर मिलने में असमर्थ हों और प्रायश्चित्त आदि के संबंध में उन दोनों में परामर्श जरूरी हो । ऐसी स्थिति में एक आचार्य आलोच्य अर्थ को गूढ पदों में आबद्ध कर अपने शिष्यों को बता दूसरे आचार्य के पास भेजते हैं। वे गीतार्थ आचार्य उन्हीं शिष्यों के साथ गूढ पदों में ही उत्तर प्रेषित कर देते हैं। इस प्रकार की प्रक्रिया आज्ञा-व्यवहार कहलाती है। धारणा-व्यवहार __किसी गीतार्थ आचार्य ने किसी समय किसी शिष्य को जिस परिस्थिति में जो प्रायश्चित्त दिया अथवा कोई अन्य प्रवृत्ति की । उसे याद रखकर वैसी परिस्थिति में उस प्रायश्चित्त-विधि या प्रवृत्ति का प्रयोग करना धारणा-व्यवहार है । आगम-पुरुष, श्रुत-पुरुष और आज्ञा-पुरुष की अनुपस्थिति में ही धारणा-व्यवहार का उपयोग किया जाता है। जीत-व्यवहार ___ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आधार पर आचार्य और बहुश्रुत साधुओं द्वारा निष्पक्ष बुद्धि से किसी भी प्रायश्चित्त या प्रवृत्ति को मान्य अथवा अमान्य स्थापित करना जीत व्यवहार है। किसी समय किसी अपराध के लिए आचार्यों ने एक प्रकार के प्रायश्चित्त का विधान किया। दूसरे समय में देश, काल, धृति, संहनन, बल आदि देखकर उसी अपराध के लिए दूसरे प्रकार का प्रायश्चित्त का विधान किया, इसे जीत-व्यवहार कहा जाता है। साधु-संघ की व्यवस्था में पांच व्यवहारों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनके माध्यम से संघ को जागरूक और विशुद्ध रखने का प्रयत्न किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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