Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 159
________________ वर्ग ४, बोल १३ / १५७ अपने पति को सब तरह से आश्वस्त कर वह सहेली के घर गई और उसके वस्त्र, आभूषण आदि पहनकर पति के पास आ गई। प्रातःकाल जब वह मूल रूप में पति से मिली तो वह पश्चात्ताप की आग में जल रहा था। उसने कहा-मैंने व्रत स्वीकार करके उसका भंग कर दिया है । इस पाप से मेरा छुटकारा कैसे होगा। अब मैं क्या करूं? अपने पति की सहजता और अन्तर्मन के पश्चात्ताप को देख पली ने सही बात बता दी। श्रावक अपनी पत्नी के इस कौशल से बहुत खुश हुआ। उसने गुरु के समक्ष आलोचना कर अपनी दूषित मनोवृत्ति के लिए प्रायश्चित्त स्वीकार किया। पारिणामिकी बुद्धि के द्वारा अपने पति को पतित होने से बचाने वाली वह श्राविका कोई विलक्षण महिला थी। १३. श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार हैं१. अक्षरश्रुत ८. अनाादिश्रुत २. अनक्षरश्रुत ९. सपर्यवसितश्रुत ३. संज़िश्रुत १०. अपर्यवसितश्रुत ४. असंज़िश्रुत ११. गमिकश्रुत ५. सम्यक्श्रुत १२. अगमिकश्रुत ६. मिथ्याश्रुत १३. अंगप्रविष्टश्रुत ७. सादिश्रुत १४. अनंगप्रविष्टश्रुत पांच ज्ञानों में दूसरा ज्ञान है श्रुतज्ञान । शब्द, संकेत आदि द्रव्यश्रुत के सहयोग से दूसरों को समझाने में समर्थ ज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है। उसके चौदह भेद हैं अक्षरश्रुत अनक्षरश्रुत जो कुछ कहना है, उसे अक्षरों के माध्यम से निरूपित करना । अक्षर ज्ञान करने का साधन है। यहां उसी को ज्ञान माना गया है। यह साधन में साध्य का आरोपण है। मुंह, भौं, अंगुली आदि के विकार या संकेत द्वारा अपने भाव प्रकट करना। इसमें भी साधन को साध्य माना गया है। समनस्क प्राणी का श्रुत। बिना मन वाले प्राणी का श्रुत। संज्ञिश्रुत असंज्ञिश्रुत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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