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११४ / जैनतत्त्वविद्या
१०. मोक्ष के चार हेतु हैं१. सम्यक् दर्शन ३. सम्यक् चारित्र २. सम्यक् ज्ञान
४. सम्यक् तप जैन धर्म का लक्ष्य है मोक्ष । मोक्ष का अर्थ है-संपूर्ण कर्मों का क्षय होने से आत्मा की अपने स्वरूप में अवस्थिति । दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कहा जा सकता है-बद्ध आत्मा का मुक्त होना ही मोक्ष है । इस दृष्टि से मोक्ष और मुक्त आत्मा दो अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा अपने कारण से बंधती है और अपने ही कारण से मुक्त होती है। दूसरा कोई भी उसे बांधने वाला या मुक्त करने वाला नहीं है। अब प्रश्न यह है कि आत्मा स्वयं मुक्त होती है तो मुक्त होने की प्रक्रिया क्या है ? | ___ दसवें बोल में मुक्त होने के चार हेतुओं का उल्लेख किया गया है।
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप की आराधना से मोक्ष की प्राप्ति होती है । एक दृष्टि से देखा जाए तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र आत्मा के निजी गुण हैं । उन गुणों की पूर्ण रूप से अभिव्यक्ति होने पर ही मोक्ष संभव है। तप उन गुणों की अभिव्यक्ति का साधन है। किंतु प्रारंभ में ज्ञान, दर्शन आदि भी साधन के रूप में काम आते हैं, जैसे—क्षायक सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है, इसलिए साध्य है और दर्शन का अभ्यास उसका साधन है। इसमें आज्ञारुचि, अभिगमरुचि आदि दस रुचियों तथा शम, संवेग आदि सम्यक्त्व के लक्षणों को आत्मसात् करने का अभ्यास किया जाता है।
केवल-ज्ञान साध्य है और मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि उसके साधन हैं । व्यवहार में ज्ञान का जो अभ्यास किया जाता है, वह साधन के रूप में ही है।
क्षायिक चारित्र का अर्थ है वीतरागता । वह आत्मा का स्वरूप है । सामायिक चारित्र, छेदोपस्थाप्य चारित्र आदि उस स्वरूप को उपलब्ध करने के साधन हैं । साध्य
और साधन का यह भेद प्रारम्भ में रहता है । जैसे-जैसे अन्तर्मुखता बढ़ती है, स्वरूप के निकट पहुंच होने लगती है, धीरे-धीरे भेद समाप्त हो जाते हैं।
तपस्या को मोक्ष का कारण माना गया है। वह अन्त तक साधन के रूप में ही प्रयुक्त होती है। कुल मिलाकर दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप—ये चारों मोक्ष के कारण हैं और इनका निरन्तर अभ्यास किया जाता है।
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