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१४० / जैनतत्वविद्या विनष्ट भी होता है और स्थिर भी रहता है । जैनधर्म में पदार्थ का लक्षण यही बतलाया गया है। इस आधार पर निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि जिसमें उत्पाद, विनाश और स्थायित्व रहता है, वह सत् है । उत्पाद, विनाश और स्थायित्व के साथ उसका अविनाभावी संबंध है।
२. वस्तुबोध की चार दृष्टियां हैं१. द्रव्य
३. काल २. क्षेत्र
४. भाव वस्तुबोध की चार दृष्टियां हैं। हमें किसी भी वस्तु का समग्रता से बोध करना है तो विवेच्यमान चार दृष्टियों का उपयोग करना ही होगा, अन्यथा वस्तुबोध सर्वांगीण न होकर एकांगी हो जाएगा। वे चार दृष्टियां हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव।
द्रव्य- व्यक्ति या मूल वस्तु । क्षेत्र- स्थान या देश विशेष । काल- समय-शीतकाल, उष्णकाल आदि । भाव- वस्तुगत अवस्थाएं।
वस्तुबोध की उपरोक्त चारों दृष्टियों का विशद विवेचन न करके उन्हें कुछ उदाहरणों के माध्यम से सरलता से समझा जा सकता है। प्रथम उदाहरण में हमारी आलोच्य वस्तु है 'घड़ा' । निर्विशेषण रूप में 'घड़ा' इस शब्द का उच्चारण करने से उसका सर्वांगीण बोध नहीं हो पाता। उसी को यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की कसौटी पर कस लिया जाए, तो उसका पूर्ण अवबोध हो सकता है। जैसे—घड़ा एक वस्तु है। वह द्रव्य की अपेक्षा एक घट द्रव्य है, जो ऊपर से संकरा, मध्य में गोलाकार और जल-धारण की क्षमता रखने वाला है । क्षेत्र की अपेक्षा वह राजस्थान, गुजरात या बंगाल आदि जिस क्षेत्र में निर्मित होता है । काल की अपेक्षा वह शीतकाल में बना हुआ है या उष्णकाल में बना हुआ है । भाव की अपेक्षा वह किस वर्ण, रूप अथवा आकार से निर्मित है । वह जल डालने का है, घी डालने का है अथवा मंगल कलश के रूप में काम आने वाला है।
इसी प्रकार एक दूसरा उदाहरण 'घड़ी' का हो सकता है। द्रव्य की अपेक्षा 'घड़ी' वह वस्तु है, जो अनेक प्रकार के कल-पुर्जी से बनी हुई है और समय देखने के काम आती है। क्षेत्र की अपेक्षा वह जापान की है, स्विट्जरलैण्ड की है अथवा
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