________________
१४८ / जैनतत्त्वविद्या
जाने पर भी द्रव्य के आकार में कोई परिवर्तन परिलक्षित नहीं होता और जो केवल वर्तमान समय में होता है, वह अर्थ पर्याय है ।
जो पर्याय स्थूल होता है, सर्वसाधारण के बोध का विषय बनता है, त्रैकालिक होता है और शब्दों के द्वारा बताया जा सकता है, वह व्यंजन पर्याय है । व्यंजन का अर्थ है – व्यक्त या स्पष्ट । इस दृष्टि से जो-जो स्पष्ट है, वह सब व्यंजन पर्याय है । पर्याय द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहता है । इस दृष्टि से द्रव्य और गुण या सूक्ष्म जितना बदलाव आता है, वह सब पर्याय है । जीव का मनुष्य और देव आदि रूपों में परिवर्तन होना, पुद्गलों का भिन्न-भिन्न स्कन्धों में परिणमन होना, ये सब द्रव्य के पर्याय हैं ।
ज्ञान और दर्शन में परिवर्तन होना, वर्ण आदि में नयापन और ये सब गुण के पर्याय हैं
|
७. प्रमाण के दो प्रकार हैं२. परोक्ष
Jain Education International
१. प्रत्यक्ष
८. प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं
१. पारमार्थिक प्रत्यक्ष
२. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष
सातवें बोल में प्रमाण के भेदों का उल्लेख है। भेदों की चर्चा से पहले यह प्रमाण किसे कहा जाता है ? दार्शनिक ग्रंथों में प्रमाण को परिभाषित करते हुए कहा गया है—'यथार्थज्ञानं प्रमाणम्' – जो वस्तु जैसी है, उसका उसी रूप में परिच्छेद-बोध कराने वाला ज्ञान प्रमाण है अथवा किसी वस्तु के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए जिसका उपयोग हो, उस यथार्थ ज्ञान का नाम प्रमाण है । उसके मुख्य रूप से दो भेद माने गये हैं- प्रत्यक्ष और परोक्ष ।
प्रत्यक्ष बिना माध्यम से होने वाला साक्षात् ज्ञान है और परोक्ष किसी माध्यम से होने वाला ज्ञान है । अक्ष शब्द के कई अर्थ होते हैं । प्रस्तुत संदर्भ में इसके दो अर्थ हैं— आत्मा और इन्द्रिय । आत्मा के द्वारा इस संपूर्ण चराचर जगत को हाथ में रखे हुए आंवले की भांति जानने या देखने वाला ज्ञान आत्मप्रत्यक्ष है । इसी प्रकार
पुरानापन होना,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org