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वर्ग ४, बोल ९ / १४९ इन्द्रियों से साक्षात्कार होने पर किसी अन्य माध्यम के बिना जो ज्ञान होता है, वह इन्द्रियप्रत्यक्ष है । जिस ज्ञानोपलब्धि में आत्मा या इन्द्रिय और पदार्थ के मध्य कोई माध्यम या व्यवधान रहता है, वह परोक्षज्ञान है ।
आठवें बोल में प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद बतलाए गए हैं—- पारमार्थिक और सांव्यवहारिक । पारमार्थिक प्रत्यक्ष वास्तविक प्रत्यक्ष होता है । यह सीधा आत्मसाक्षात्कार है । इसमें किसी प्रकार के माध्यम या व्यवधान की उपस्थिति नहीं होती । इस दृष्टि से इसे पारमार्थिक माना गया है ।
सांव्यवहारिक का अर्थ है व्यवहार - सापेक्ष । जो कुछ आंख से देखा जाता है, कान से सुना जाता है या शरीर के किसी अवयव से स्पर्श द्वारा ज्ञान किया जाता है, वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है । क्योंकि आत्मा और ज्ञेय पदार्थ के मध्य में आंख, कान, जीभ आदि का व्यवधान है। फिर भी लोकदृष्टि में यह प्रत्यक्ष जैसा ही लगता है इसलिए इसे सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहा गया है ।
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व्यवहार और परमार्थ ये दो तत्त्व हैं। निश्चय नय की दृष्टि से परमार्थ ही यथार्थ होता है । किंतु व्यवहार नय व्यवहार का लोप नहीं होने देता । बहुत-सी बातें ऐसी होती हैं, जिनका यथार्थ के धरातल पर कोई मूल्य नहीं है, पर वे लोक में मान्य हैं । ऐसी बातों को तीर्थंकरों ने भी मान्यता दी है । इसलिए उन्हें अस्वीकार करने का कोई अर्थ नहीं होता ।
एक बच्चा काठ की लकड़ी को घोड़ा मानकर उस पर बैठता है । उसे चलाता है । बड़े लोग भी उस लकड़ी को घोड़ा कहकर पुकारते हैं । यह कथन असत्य नहीं, व्यवहार सत्य है । इसी प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष आत्मा और पदार्थ के बीच व्यवधान होने के कारण परोक्ष होने पर भी प्रत्यक्ष कहलाता है I
९. पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन प्रकार हैं१. अवधि
२. मन: पर्यव ३. केवल
बोल में पारमार्थिक प्रत्यक्ष के तीन प्रकार बतलाये गये हैं - अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान । केवलज्ञान पूर्ण या सकल प्रत्यक्ष कहलाता है । अवधिज्ञान और मनःपर्यवज्ञान अपूर्ण या विकल प्रत्यक्ष कहलाते हैं । इनमें आत्मा और पदार्थ के मध्य इन्द्रिय, मन तथा अन्य किसी सहारे की अपेक्षा नहीं रहती । इस दृष्टि से इन्हें पारमार्थिक प्रत्यक्ष, आत्मप्रत्यक्ष या नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है । पर
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