Book Title: Jain Tattvavidya
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 152
________________ १५० / जैनतत्वविधा इनसे केवलज्ञान की भांति अमूर्त तत्त्वों का ज्ञान नहीं होता, इसलिए ये अपूर्ण या विकल प्रत्यक्ष हैं। अवधिज्ञान 'अवधानं अवधिः' । एकाग्रता की विशिष्ट स्थिति में संसार के मूर्त पदार्थों को जानने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है । अवधिज्ञान उपलब्ध होने पर भी एकाग्रता के अभाव में वस्तु का बोध नहीं हो सकता। अवधिज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान है। सब जीवों का क्षयोपशम समान नहीं होता। इसलिए अवधिज्ञान भी सबका एक रूप नहीं होता। यह ज्ञान बढ़ सकता है, घट सकता है। जीवन भर साथ रह सकता है और छूट भी सकता है। व्यक्ति का अनुगमन कर सकता है और स्थान विशेष में भी हो सकता है। यह ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि की सीमाओं में आबद्ध है, इस दृष्टि से भी इसे अवधिज्ञान कहा जाता है। मनःपर्यवज्ञान मनोद्रव्य की पर्यायों का साक्षात्कार करने वाला ज्ञान मनःपर्यवज्ञान है । इस ज्ञान के द्वारा समनस्क जीवों के मानसिक भावों को जाना जा सकता है। क्योंकि यह मनोवर्गणा के पुद्गलों के आधार पर सामने वाले व्यक्ति के मानसिक चिन्तन का अवबोध करता है । अवधिज्ञान का विषय समस्त रूपी द्रव्य है, जबकि मनःपर्यवज्ञान का विषय केवल मनोद्रव्य है। यह ज्ञान केवल साधुओं को ही उपलब्ध हो सकता केवलज्ञान संसार के सब द्रव्यों और पर्यायों का साक्षात्कार करने वाला ज्ञान केवलज्ञान है। इस ज्ञान के उपलब्ध हो जाने पर शेष चार ज्ञान कृतार्थ हो जाते हैं । जैनदर्शन के अनुसार आत्मा ज्ञान का आधार नहीं, वह ज्ञानस्वरूप है। इस दृष्टि से आत्मा का निरावरण स्वरूप ही केवलज्ञान है । जब तक केवलज्ञान प्राप्त नहीं होता, आत्म-स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हो सकता। इस दृष्टि से उपर्युक्त तथ्य को इस भाषा में भी कहा जा सकता है कि आत्म-साक्षात्कार ही केवलज्ञान है। यह ज्ञान उपलब्ध होने के बाद सदा उपलब्ध रहता है। इससे मूर्त और अमूर्त सब पदार्थों की त्रैकालिक अवस्था का बोध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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