________________
वर्ग ३, बोल ९ / ११३
९. बंध के चार प्रकार हैं१. प्रकृति
३. अनुभाग २. स्थिति
४. प्रदेश बंध शब्द का अर्थ है बंधन में लेना। इस शब्द के साथ सम् उपसर्ग जोड़ दिया जाए तो इसका अर्थ हो जाता है सम्बन्धित होना या मिलना । आत्मा के सन्दर्भ में बंध शब्द का प्रयोग आत्मा और कर्मपुद्गलों की संबंध-योजना का वाचक है। इस संबंध में आत्मा और कर्म की सत्ता अलग-अलग नहीं रहती। वे इस प्रकार एकीभूत हो जाते हैं, जैसे तिलों में तेल होता है, दूध में घी होता है। आत्मा और कर्मों का यह सम्बन्ध प्रवाह रूप से अनादि है। संसारी जीव के सामने ऐसा समय कभी नहीं आता, जब वह कर्मों के बंधन से मुक्त रहता हो।
बंधन के कई प्रकार हैं। पर मुख्य रूप से वह चार प्रकार का ही है। इन चारों प्रकारों में मूल बंध है प्रदेश बंध । बाकी के बंध तो इसके साथ-साथ होते हैं।
कर्म-वर्गणा का आत्म-प्रदेशों के साथ संबंध होना प्रदेश बन्ध है।
आत्मा से सम्बद्ध होने वाले कर्मों में किस कर्म का क्या स्वभाव है; वह आत्मा के किस गुण को प्रभावित करेगा; इस प्रकार के वर्गीकरण का नाम प्रकृति बंध है।
कौन कर्म कितने समय तक आत्मा से सम्बद्ध रहेगा; किस अवधि के बाद वह अपना फल देगा; ऐसी व्यवस्था का नाम स्थिति बन्ध है।
किस कर्म का बन्ध तीव्र परिणामों से हुआ है; किस कर्म का बन्ध मन्द परिणामों से हुआ है; कौन कर्म तीव्र-विपाकी होगा और कौन कर्म मन्द-विपाकी; ऐसी समायोजना का नाम अनुभाग बन्ध है।
जिस समय प्रदेश-बन्ध होता है, उसके साथ-साथ ही शेष तीनों बन्ध हो जाते हैं। कर्म-बन्धन या उसके फल भोग में किसी भी अदृश्य शक्ति का योग नहीं है। आत्मा के अपने पुरुषार्थ और कर्मों के परिणमन की विचित्रता से सारी प्रक्रिया अपने आप सम्पादित हो जाती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org