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१२६ / जैनतत्त्वविद्या
२१. ध्यान के चार प्रकार हैं
१. आर्त २. रौद्र
३. धर्म्य
४. शुक्ल
किसी एक आलम्बन पर मन को केन्द्रित करने अथवा मन, वाणी और शरीर के निरोध को ध्यान कहा जाता है। इसके चार प्रकारों में प्रथम दो ध्यान अशुभ हैं और शेष दो शुभ हैं । निर्जरा तत्त्व में जिस ध्यान का उल्लेख है, उसका सम्बन्ध शुभ ध्यान से है । चूंकि अशुभ ध्यान में भी मन का एकाग्र सन्निवेश होता है, किंतु चेतना के विकास में उसका कोई योग नहीं होता, इस दृष्टि से निर्जरा के भेदों में आर्त्तध्यान और रौद्रध्यान का ग्रहण नहीं हो सकता । यहां सामान्य रूप से ध्यान की व्याख्या में शुभ और अशुभ 'दोनों प्रकार के ध्यान का समावेश कर दिया गया है आर्त्तध्यान
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प्रिय व्यक्ति या वस्तु के वियोग और अप्रिय व्यक्ति या वस्तु के संयोग से होने वाली चैतसिक विकलता की स्थिति में जो चिन्तन होता है, वह आर्त्तध्यान कहलाता है । वेदनाजनित आतुरता और विषय सुख की प्राप्ति के लिए किया जाने वाला दृढ़संकल्प भी इसी ध्यान का अंग है । व्याकुलता, छटपटाहट और अधीरता आर्त्तध्यान की निष्पत्तियां हैं ।
रौद्रध्यान
भौतिक विषयों की सुरक्षा के लिए तथा हिंसा, असत्य, चोरी, क्रूरता आदि दुष्प्रवृत्तियों से अनुबन्धित चिन्तन का नाम रौद्रध्यान है । इस ध्यान से प्रभावित व्यक्ति ध्वंसात्मक भावों का अर्जन करता है और उनकी प्रेरणा से अवांछित कार्यों में प्रवृत्त होता है।
धर्म्यध्यान
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जिस वस्तु का जो धर्म होता है, उसे यथार्थ रूप में जानने अथवा सत्य की खोज के लिए होने वाले चिन्तन का नाम धर्म्यध्यान है । इस ध्यान की साधना करने वाला साधक आगमों में प्रतिपादित तत्त्वों को ध्येय बनाकर उनमें एकाग्र होता है । राग-द्वेष आदि दोषों की उत्पत्ति और क्षय के हेतुओं को ध्येय बनाकर उनमें एकाग्र होता है । द्रव्य की विविध आकृतियों और पर्यायों को ध्येय बनाकर उनमें एकाग्र होता है तथा कर्म के फल को ध्येय बनाकर उसमें एकाग्र होता है ।
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