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वर्ग ३, बोल ८ । १११ जो तप बाह्य रूप से दिखाई देता है, विशेष रूप से स्थूल शरीर को प्रभावित करता है, वह बाह्य तप है । इसके छह प्रकार हैं
अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचरी, रसपरित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता।
इन छहों में सबसे प्रथम स्थान मिला है खाद्यसंयम को । बाह्य तप के चार भेद इसी परिप्रेक्ष्य में किए गए हैं। साधना का विकास करने के लिए यह आवश्यक भी है। जो व्यक्ति भोजन का भी संयम नहीं कर सकता, वह संयम और तप की अग्रिम भूमिकाओं पर आरोहण करने में सफल कैसे होगा? इस दृष्टि से निर्जरा अथवा तप का प्रारम्भ यहीं से माना गया है।
अनशन- अनशन का अर्थ है आहार का परिहार । उपवास और उससे आगे जितनी तपस्या की जाती है, वह इसके अन्तर्गत है। अध्यात्म की दृष्टि से आजीवन आहार-त्याग किया जाता है, उसे 'संथारा' कहा जाता है । वह भी अनशन ही कहलाता
ऊनोदरी-ऊन यानी कमी । सामान्यतः खुराक में कमी करने का नाम ऊनोदरी है। इसमें भोजन और पानी दोनों सम्मिलित हैं। वैसे वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों की अल्पता भी ऊनोदरी तप में अन्तर्गभित है।
उपवास से छोटी तपस्या-नवकारसी, प्रहर, एकाशन आदि का भी इसी में समावेश होता है।
. भिक्षाचरी-भिक्षाचरी का दूसरा नाम है 'वृत्तिसंक्षेप' । इसमें विविध प्रकार की प्रतिज्ञाओं से अपनी खाद्य-विधि को और अधिक सीमित किया जाता है।
रसपरित्याग–अनेक प्रकार के आसनों द्वारा शरीर को साधने का नाम कायक्लेश है। इससे एक ही आसन में घंटों तक बैठने का अभ्यास सध जाता है ।
प्रतिसंलीनता-इन्द्रिय, मन आदि की बहिर्मुखी प्रवृत्ति का प्रतिसंहरण करने या उसे अन्तर्मुखी बनाने का नाम प्रतिसंलीनता है।
बाह्य तप अथवा निर्जरा के उपर्युक्त भेदों में ध्यान, व्युत्सर्ग आदि होते ही नहीं, यह बात नहीं है। प्रवृत्ति की प्रधानता और गौणता के आधार पर यह वर्गीकरण है। वैसे तो तप के किसी भी प्रकार में अन्य तपस्याएं भी की जा सकती हैं।
बाह्य तप के छह भेदों की चर्चा के बाद आभ्यन्तर तप की चर्चा है । जो तप अन्तःशरीर यानी सूक्ष्म-शरीर को अधिक तपाता है, जिससे कर्म-शरीर क्षीण होता है, वह आभ्यन्तर तप है । इस तप का स्थूल शरीर पर विशेष प्रभाव परिलक्षित नहीं
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