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वर्ग ३, बोल ६ / १०७ ८. माया - धोखाधड़ी, वंचना आदि करने से बंधने वाला पाप
कर्म। ९. लोभ - लालसा से बंधने वाला पाप कर्म । १०. राग - रागात्मक प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । ११. द्वेष - द्वेषात्मक प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । १२. कलह - झगड़ालु वृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । १३. अभ्याख्यान- मिथ्या दोषारोपण करने वाली प्रवृत्ति से बंधने वाला
पाप कर्म । १४. पैशुन्य - चुगली करने की प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । १५. परपरिवाद - पर-निन्दामूलक प्रवृत्ति से बंधने वाला पाप कर्म । १६. रति-अरति - असंयम में रुचि और संयम में अरुचि के निमित्त से
बंधने वाला पाप कर्म। १७. माया-मृषा - छलनापूर्वक असत्य-संभाषण की प्रवृत्ति से बंधने वाला
पाप कर्म । १८. मिथ्यादर्शन- विपरीत श्रद्धा से बंधने वाला पाप कर्म।
शल्यइन अठारह पापों के अतिरिक्त और भी ऐसी प्रवृत्तियां हैं, जिनके द्वारा पाप का बन्धन होता है। पर प्रस्तुत संदर्भ में अठारह पापों की ही चर्चा है । इस प्रकार की जो अन्य प्रवृत्तियां हैं, उनका इन्हीं में अन्तर्भाव हो सकता है। अठारह पापों में सतरहवां पाप है—माया-मृषा । माया एक पाप है, मृषावाद भी एक पाप है। इन दोनों को एक साथ रखने का अभिप्राय यह भी है कि एक से अधिक पाप एक साथ हो सकते हैं।
६. आश्रव के पांच प्रकार हैं१. मिथ्यात्व
४. कषाय २. अव्रत
५. योग ३. प्रमाद जिस परिणाम से आत्मा में कर्मों का आश्रवण-प्रवेश होता है, उसे आश्रव कहा जाता है। जिस प्रकार मकान के दरवाजा होता है, तालाब के नाला होता है,
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