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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। (औप ७७)। अगुरुलघुकगुण
(प्रज्ञा १५. ५७) (द्र अगुरुलघुत्व)
अगुरुलघुकनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से शरीर न अति भारी होता है और न अति हल्का; गुरुत्व और लघुत्व का सन्तुलन बना रहता है। यदुदयात् प्राणिनां शरीराणि न गुरूणि नापि लघूनि किन्त्वगुरुलघुरूपाणि भवन्ति, तदगुरुलघुनाम।
__ (प्रज्ञा २३.५१ वृ प ४७३) अगुरुलघुपरिणामनियामकमगुरुलघुनाम। (तभा ८.१२) अगुरुलघुकपर्यव द्रव्य का एक सामान्य गुण।
(भग २.४५) (द्र अगुरुलघुत्व)
तब्भत्तिया, तप्पक्खिया तब्भारिया"महारण्णो आणाउववाय-वयण-निद्देसे चिटुंति॥ (भग ३.२५२) अग्रेयणीय पूर्व दूसरा पूर्व। इसमें सब द्रव्यों, पर्यायों और सब जीवों के परिमाण का प्रज्ञापन किया गया है। बितियं अग्गेयणीयं, तत्थ वि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सव्वजीवविसेसाण य अग्गं-परिमाणं वणिज्जड़।
(नन्दी १०४ चू पृ७५), अघातिकर्म वह कर्म, जो आत्मा के मूल गुणों का घात नहीं करता, जैसे-वेदनीय कर्म, नाम कर्म, गोत्र कर्म और आयुष्य कर्म। (द्र घातिकर्म)
अगुरुलघुत्व सामान्य गुण का एक प्रकार। वह गुण अथवा पर्याय. 'जो द्रव्य के अस्तित्व को बनाए रखता है। स्वस्वरूपाविचलनत्वम्-अगुरुलघुत्वम्।
(जैसिदी १. ३८ वृ) अगुरुलघु द्रव्य
(भग १.४०३) (द्र गुरुलघु द्रव्य) अग्निकाय
(आचूला २.४१) (द्र तेजस्कायिक) अग्निकुमार भवनपति देव का एक प्रकार । वह देववर्ग, जिसका शरीर भास्वर और अवदात होता है, जिसका चिह्न है घट और जो लोकपाल सोम की आज्ञा में रहता है। मानोन्मानप्रमाणयुक्ता भास्वन्तोऽवदाता: घटचिह्नाः अग्निकुमारा भवन्ति।
(तभा ४. ११) अग्गिकुमारा""तारारूवा जे यावण्णे तहप्पगारा सव्वे ते
अङ्ग १. द्वादशाङ्ग (आचाराङ्ग आदि बारह आगम), जो अर्हतप्रज्ञप्त और गणधरों द्वारा निर्मित है। गणहर-थेरकयं वा, आएसा मुक्कवागरणओ वा। धुव-चलविसेसओ वा, अंगाणंगेसु नाणत्तं ।।
(विभा ५५०) २. कालिक श्रुत का एक विभाग, ग्यारह अंग। कालियसुयपरिमाणसंखा"अंगसंखा। (अनु ५७१) अचूलिका कालिक श्रुत का एक प्रकार। आचाराङ्ग की चूला अथवा दृष्टिवाद की चूला। अंगस्स चूलिता जहा आयारस्स पंचचूलातो, दिट्ठिवायस्स वा चूला।
(नन्दी ७८ चू पृ५९) अनिमित्त अष्टाङ्ग महानिमित्त का एक प्रकार। शरीर के अवयवों के स्फुरण अथवा स्पन्दन के आधार पर शुभ-अशुभ फल की उद्भावना करने वाला शास्त्र। अंग-प्रत्यंग-दर्शन-स्पर्शनादिभिस्त्रिकालभाविसुखदुःखादिविभावनमङ्गम्।
(तवा ३.३६) अंङ्गप्रविष्ट श्रुतज्ञान का एक भेद।
(नन्दी ७३) (द्र अङ्ग, अङ्गबाह्य श्रुत)
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