Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ अ अकतिसञ्चित वह राशि, जो गणना की दृष्टि से असंख्यात अथवा अनंत है। सिद्धिपदमारोहन्ति (तां), क्षपकश्रेणिम्। (उ १०. ३५ शावृ प ३४१) अकल्पस्थापनाकल्प वह मुनि, जिसने पिण्डैषणा के सूत्र और अर्थ का अध्ययन नहीं किया है, उससे आहार आदि की गोचरी न करवाना। 'अकल्पिकेन' अनधीतपिण्डैषणादिसूत्रार्थेन आहारादिकं न ग्राहयेत्। (बृभा ६४४२ वृ) अकति-असंख्याता अनन्ता वा...."असंख्याता एकैकसमये उत्पन्नाः सन्तस्तथैव सञ्चितास्ते अकतिसञ्चिताः। (स्था ३.७ वृ प ९९) (द्र कतिसञ्चित) अकल्पस्थित वह मुनि, जो चातुर्याम की परम्परा में दीक्षित है। अकल्पस्थितानां तु 'चत्वारो यामाः' चत्वारि महाव्रतानि भवन्ति। (बृभा ५३४० वृ) अकर्मभूमि वह क्षेत्र, जहां कल्पवृक्ष के द्वारा जीवन की आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं, जहां जीविका के लिए वाणिज्य, कृषि आदि की प्रवृत्ति नहीं होती। अकर्मभूमियां तीस हैं। कृष्यादिकर्मरहिता: कल्पपादपफलोपभोगप्रधाना भूमयो हैमवतपञ्चकहरिवर्षपञ्चकदेवकुरुपञ्चकोत्तरकुरुपञ्चकरम्यकपञ्चकैरण्यवतपञ्चकरूपास्त्रिंशदकर्मभमयः। (नन्दी २३ मवृ प १०२) (द्र कर्मभूमि) अकर्मवीर्य वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से उत्पन्न जीव की सहज शक्ति। न विद्यते कर्मास्येत्यकर्मा-वीर्यान्तरायक्षयजनितं जीवस्य सहजं वीर्यम्। (सूत्र १.८.२ वृ प १६८) अकर्मांश १. सिद्ध अवस्था, जहां कर्म का अंशमात्र भी शेष न हो। अकम्मंसे-एभिः सर्वैर्विधूणितैः अकम्मंसो भवति... सिद्धत्वम्। (सूत्र १.१.३९ चू पृ ४५) २. स्नातक निर्ग्रन्थ की एक अवस्था. जो निर्ग्रन्थ के घात्यकर्मों के पूर्ण क्षय की सूचक है। क्षालितसकलघातिकर्ममलपटलत्वात् स्नात इव स्नातः स एव स्नातकः""क्षपितकर्मत्वादकाँशः। (स्था ५. १८९ वृ प ३२०) अकषाय संवर वीतराग-अवस्था, क्रोध आदि कषायों का निरोध। क्रोधाद्यभावोऽकषायः। __ (जैसिदी ५.१४) अकषायी वह मुनि, जिसका मोह उपशांत अथवा क्षीण हो चुका हो। अकषायिण: उपशान्तमोहादयः । (स्था ५.२०८ वृ प ३२७) अकस्मात्दण्डप्रत्यय दण्डसमादान क्रियास्थान का चौथा प्रकार, किसी एक का वध करते समय अकस्मात् किसी दूसरे का वध हो जाना। अहावरे चउत्थे दंडसमादाणे अकस्मादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइ-से जहाणामए केइ पुरिसे कच्छंसि वा दहंसि वा""कविंजलं वा विंधित्ता भवति–इति खल से अण्णस्स अट्ठाए अण्णं फुसइ-अकस्मादंडे। (सूत्र २.२.६) अकस्मात् भय भय का एक प्रकार। किसी बाह्यनिमित्त के बिना होने वाला भय। अकस्मादेव बाह्यनिमित्तानपेक्षं गहादिष्वेव स्थितस्य रात्र्यादौ भयमकस्माद्भयम्। (स्था ७.२७ वृ प ३६९) अकलेवर श्रेणी क्षपक श्रेणी, जिस पर आरोहण कर मुनि कर्मों को क्षीण करता है। कलेवर-शरीरम् अविद्यमानं कडेवरमेषामकडेवरा:-सिद्धास्तेषां श्रेणिरिव श्रेणिर्ययोत्तरोत्तरशुभपरिणामप्राप्तिरूपया ते अकाम निर्जरा मोक्ष की अभिलाषा के बिना होने वाली अथवा की जाने वाली अविपाकी निर्जरा। जो व्यक्ति अपने अभिप्राय से विषयों की निवृत्ति नहीं करता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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