Book Title: Jain Paribhashika Shabdakosha
Author(s): Tulsi Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 19
________________ २ किन्तु परतंत्रता के कारण भोग और उपभोग का निरोध करता है, उससे होने वाला कर्म का परिशाटन । विषयाऽनर्थनिवृत्तिं चात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याद् भोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा । ( तवा ६.१२) सहकामेन मोक्षाभिलाषेण विधीयमाना निर्जरा सकामा, तदपरा अकामा । (जैसिदी ५.१८ वृ) अकाम मरण मरण का एक प्रकार । मृत्यु को न चाहने पर भी विषय में आसक्त होने के कारण होने वाली असंयमी की मृत्यु । बाला इव बालाः सदसद्विवेकविकलता....... ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव म्रियन्ते । (उ५. १७ शावृ प २४२ ) अकाल वह कालखण्ड, जो स्वाध्याय आदि करणीय कार्य के लिए सम्मत नहीं है। काल:- कर्त्तव्यावसरस्तद्विपरीतोऽकालः । ( आवृ प ९१ ) अकुशल वह व्यक्ति, जिसकी प्रवृत्ति जन्म-मरण बढ़ाने की ओर होती है। अकुसलो नाम अप्रधानः बंधाय संसाराय । अकृत्स्ना आरोपणा कोई मुनि प्रायश्चित्त के लिए षाण्मासिक तप कर रहा है, उसी अवधि में दोष का आसेवन होने पर दिया जाने वाला प्रायश्चित्त, जो उसी छ: मास की अवधि में समाहित किया जाता है, वह अकृत्स्ना आरोपणा है। बहूनपराधानापन्नस्य षण्मासान्तं तप इतिकृत्वा षण्मासाधिकं तपः कर्म तेष्वेवान्तर्भाव्य शेषमारोप्यते यत्र सा अकृत्स्नारोपणा । (सम २८. १ वृ प ४६ ) (निभा ७४ चू पृ ३६ ) अक्रियावादी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करने वाला वादी, दार्शनिक । ये पुनरिहाक्रियावादिनस्तेषामात्मैव नास्ति । (द्र क्रियावादी) Jain Education International (उशावृ प ४४३) अक्षणयोग वह प्रयत्न, जो हिंसा-रहित होता है। अहिंसणेण अच्छणो जोगो जस्स सो अच्छणजोगी । (द ८. ३ अचू पृ १८५) जैन पारिभाषिक शब्दकोश अक्षर ज्ञानचेतना, जिसका कभी क्षरण नहीं होता। जो अनुपयोग अवस्था में भी प्रच्युत नहीं होता, वह अक्षर है । नाणक्खरं 'क्षर संचरणे' न क्षरतीत्यक्षरम्, न प्रच्यवते अनुपयोगे ऽपीत्यर्थः....तं च णाणं अविसेसतो चेतनेत्यर्थः । (नन्दी ५५ चू पृ ४४) अक्षरश्रुत 1 श्रुतज्ञान का एक भेद, जो अक्षर की दृष्टि से किया गया। है अक्षर-संज्ञाक्षर, व्यञ्जनाक्षर और लब्ध्यक्षर के आधार पर होने वाला ज्ञान । अक्खरसुयं तिविहं पण्णत्तं, तं जहा - सण्णक्खरं, वंजणक्खरं, लद्धिअक्खरं । ( नन्दी ५६) अक्षीणमहानस एक लब्धि । खाद्य वस्तु को अक्षीण बनाने वाली योगज विभूति, दूसरों को खिलाने के लिए अक्षीण और स्वयं खाने पर वह क्षीण हो जाती है। ssi भैक्षं बहुभिरप्यन्यैर्भुक्तं न क्षीयते, किन्तु स्वयमेव भुक्तं निष्ठां याति तस्याऽक्षीणमहानसीलब्धिः । (विभा ८०१ वृ) अगमिकश्रुत श्रुतज्ञान का एक भेद, जिसका वर्गीकरण ग्रंथ की रचनाशैली के आधार पर किया गया है, जिसमें गाथा, श्लोक, वेष्टक आदि असदृश पाठों की बहुलता है, जैसे -कालिक श्रुत । भंगगणिया गमियं जं सरिसगमं च कारणवसेण । गाहाइ अगमियं खलु कालियसुयं दिट्टिवाए वा ॥ (विभा ५४९) (द्र गमिक श्रुत) अगारधर्म बारह प्रकार का धर्म, जिसका प्रतिपादन गृहस्थ के लिए किया गया है, जैसे- पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत । अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खड़, तं जहा - पंच अणुव्वयाई, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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