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है । इसमें हरिवंश की प्रशंसा की गई है। इस ग्रंथ में दो खण्ड हैं। पहले खण्ड में 29 लंभक, 11000 श्लोक प्रमाण हैं। दूसरे खण्ड में 71 लंभक 17,000 श्लोक प्रमाण हैं।
__ प्रथम खण्ड के कर्ता संघदासगणि वाचक और दूसरे के धर्मसेनगणि हैं। जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण विशेषणवती में इस ग्रन्थ का उल्लेख किया है, इससे संघदासगणि का समय लगभग पांचवीं शताब्दी माना जाता है। प्रथम खण्ड1 के बीच का और अन्त का भाग खंडित है ।इसमें कथा का विभाजन छ: अधिकारों में किया गया है:—कहुपति, पीढिया, मुह, पडिमुह, सरीर और उवसंहार । कथोत्पन्ति के अन्त होने पर धम्मिल्ल हिण्डी का प्रारंभ होता है। धम्मिल शब्द की व्युत्पत्ति में कहा गया है कि कुसर्गपुर में जित शत्रु राजा अपनी रानी धरणी सहित राज्य करता था। इस नगरी में इन्द्र के समान वैभवशाली सुरेन्द्र दत्त नाम का सार्थवाह अपनी पत्नी सुभद्रा सहित सुख पूर्वक निवास करता था। इसके गर्भ के समय उसे दो हद उत्पन्न हुआ— “कमेण य से दोहने जातोसव्वभुतेसु अणुकप्प माणेणं धम्मियजणेण वच्छल्ल या दीणणुकम्पया बहुतरो य दाण पसंगों32" । अतएव स्पष्ट है कि इसकी माता को धर्माचरण के विषय में दोहद उत्पन्न हुआ था, इसी कारण पुत्र का नाम धम्मिल रखा गया । धम्मिल हिण्डी का वातावरण सार्थवाहों के संसार से लिया गया है। इसे एक स्वतंत्र रचना कहा जा सकता है। इसके कथानक का सादृश्य नरवाहन दत्त और वासुदेव की तरह कई विवाहों पर आधारित है धम्मिल हिण्डी में शीलमती, धनश्री, विमलसेना, ग्रामीण गाड़ीवान, वसुदन्ताख्यान, रिपुदमन, नरपति कथानक हैं, इनमें लोक कथाओं के सभी लक्षण पाये जाते हैं। इसमें धनवन्त सार्थवाह के पुत्र धनवसु का लेखा-चित्रण हैं।
धम्मिल हिण्डी में सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण विवरण है। वासुदेव हिण्डी (प्रo Mo) में वर्णन है कि किस प्रकार वासुदेव, निन्दा के कारण अपने गृहनगर सोरिपुर को छोड़कर, भ्रमण के समय बहुत सी मानवीय और अति मानवीय कुमारियों से सम्बंध स्थापित किये । सन्यासियों और गृहस्थों के इस प्रकार के उदाहरण उपलब्ध होते हैं कि किस प्रकार “निदान” करके अति
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