Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ AROMAHARLALBHAILOBARAHATARA भद्रबाहु-संहिता। ITTEmmmmtimimi ४३१ पापासूल्कासु यद्यस्तु यदा देवः प्रवर्षति । ___ भगवान होते हैं। उनके लिए कोई भी विषय ऐसा प्रशांतं तद्भयं विद्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ३-६५॥ बाक़ी नहीं रहता जिसका ज्ञान उन्हें द्वादशांगको द्योतयंती दिशः सर्वा यदा संध्या प्रदृश्यते। छोड़कर किसी दूसरे ग्रंथ द्वारा सम्पादन महामेघस्तदा विद्याद्भद्रबाहुवचो यथा ॥ ७-१६॥ करना पड़े । इसलिए उन्हें संपूर्ण विषयोंके पूर्ण इस संपूर्ण कथन और कथन-शैलीसे मालूम ज्ञाता समझना चाहिए। वे, जाननेके मार्ग होता है कि यह ग्रंथ-अथवा कमसे कम प्रत्यक्ष परोक्ष-भेदको छोड़कर समस्त पदार्थोंको इसका दूसरा खंड भले ही भद्रबाहुश्रुत- केवल ज्ञानियों के समान ही जानते और अनुभव केवलीके वचनानुसार लिखा गया हो; परन्तु वह करते हैं । ऐसी हालत होते हुए, श्रुतकेवलीके द्वारा खास भद्रबाहु श्रुतकेवलीका बनाया हुआ यदि कोई ग्रंथ रचा जाय तो उसमें केवलनहीं है और चूँकि ऊपर भद्रबाहुके कथनके ज्ञानीके समान, उन्हें किसी आधार या प्रमाणके साथ 'प्रोवाच-उवाच' ऐसी परोक्षभूतकी उल्लेख करनेकी जरूरत नहीं है और न द्वादशांगको क्रियाका प्रयोग किया गया है, जिसका यह छोड़कर दूसरे किसी ग्रंथसे सहायता लेनेहीकी अर्थ होता है कि वह प्रश्नोत्तररूपकी संपूर्ण जरूरत है। उनका वह ग्रंथ एक स्वतंत्र ग्रंथ घटना ग्रंथकर्ताकी साक्षात् अपनी आँखोंसे देखी होना चाहिए । उसमें, खंडनमंडनको छोड़कर, हुई नहीं है-वह उस समय मौजूद ही न था- यदि आधार प्रमाणका कोई उल्लेख किया भी उससे बहुत पहलेकी बीती हुई वह घटना है। जाय-अपने प्रतिपाद्य विषयकी पुष्टिमें किसी इसलिए यह ग्रंथ भद्रबाहु श्रुतकेवलीके वाक्यके उद्धत करनेकी जरूरत भी पैदा हो, तो किसी साक्षात् शिष्य या प्रशिष्यका भी वह केवली और द्वादशांगश्रुतको छोड़कर दूसरे बनाया हुआ नहीं है । इसका सम्पादन बहुत किसी व्यक्ति या ग्रंथसे सम्बंध रखनेवाला न होना काल पीछे किसी तीसरे ही व्यक्तिद्वारा हुआ है, चाहिए। ऐसा न करके दूसरे ग्रंथों और ग्रंथजिसके समयादिकका निर्णय आगे चलकर कर्ताओंका उल्लेख करना, उनके आधार किया जायगा । यहाँ पर सिर्फ इतना ही सम पर अपने कथनकी रचना करना, उनके झना चाहिए कि यह ग्रंथ भद्रबाहुका बनाया वाक्योंको उद्धत करके अपने ग्रंथका अंग हुआ या भद्रबाहुके समयका बना हुआ नहा हा बनाना और किसी खास विषयको, उत्त २ द्वादशांग वाणी अथवा द्वादशांग श्रुतके मताकी दृष्टिसे, उन दूसरे ग्रंथोमें देखनेकी विषयमें जो कुछ कहा जाता है और जैन- प्रेरणा करना, यह सब काम श्रुतकेवली शास्त्रोंमें उसका जैसा कुछ स्वरूप वर्णित है पदके विरुद्ध ही नहीं किन्तु उसको उससे मालूम होता है कि संसारमें कोई भी विद्या बट्टा लगानेवाला है। ऐसा करना, श्रुत या विषय ऐसा नहीं होता जिसका उसमें पूरा पूरा केवलीके लिए, केवली भगवान्, और द्वाद वर्णन न हो और न दूसरा कोई पदार्थ ही शांग श्रुतका अपमान करनेके बराबर होगा, ऐसा शेष रहता है जिसका ज्ञान उसकी परि- जिसकी श्रुतकेवली जैसे महर्षियों द्वारा कभी आशा घिसे बाहर हो । इसलिए संपूर्ण ज्ञान-विज्ञानका नहीं की जा सकती। चूँकि इस ग्रंथमें स्थानस्थान उसे एक अनुपम भंडार समझना चाहिए । उसी पर भद्रबाहुका ऐसा ही अयुक्ताचरण प्रगट द्वादशांग श्रुतके असाधारण विद्वान् श्रुतकेवली हुआ है इससे मालूम होता है कि यह ग्रंथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102