Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 101
________________ + AIMIMARATHMImmmmmmmmmm भारतमें जनसमाजकी अवस्था। भारतमें जैनसमाजकी अवस्था परन्तु मेरे दूसरे भाई जिन महावीर भगवानकी भारतमें जैनसमाजकी अवस्था । मूर्ति पूजनेमें अपने आत्माका कल्याण समझते हैं, (जातिप्रबोधकसे उद्धृत ।) उन्हीं महावीरदेवके समस्त धर्म राज्यकी-समग्र “पाठको! आगेके पृष्ठकी संख्याओंको ज़रा जनसमाजकी मैंने एक बड़े विस्तारवाली विशाल ध्यानसे दोखिए । इनसे आपकी अवस्थाका मूर्ति बना रक्खी है और उसकी सेवा पूजा अर्थात् पता लगता है, जातिके ह्रासका कारण मालूम उस समाज और उस धर्मकी सेवा-शुश्रूषा यथाशक्ति होता है । जैनजातिमें स्त्रियोंकी कुल संख्या यथामति तन-मन-धनसे करना यही मेरी प्यारी ६०४६२९ हैं जिसमें १५३२९७ विधवाओंकी मूर्तिपूजा है । दूसरे तमाम मनुष्योंको अपने अपने संख्या है । अर्थात् १०० पीछे २५ विधवायें हैं इष्ट देवकी पूजा करनेका जितना हक है उतना ही और स्त्रियोंकी संख्या पुरुषोंसे ३८९२४ कम मुझे इस विशाल मूर्तिकी पूजा करनेका है। है। किसी किसी पुरुषके एकसे अधिक स्त्रियाँ मेरी पूजापद्धति किसीका दिल दुखानेवाली या भी हैं । यह बात विवाहित पुरुषों और विवाकिसीको हानि पहुँचानेवाली नहीं है, इस लिए दूसरे हिता स्त्रियोंकी संख्यासे मालूम होती है । सज्जनोंको चाहिए कि वे अपनी अपनी पूजा ___ २६९६२७ विवाहिता स्त्रियाँ हैं और २६८९३८ विवाहित पुरुष हैं अर्थात् ६९६ स्त्रियाँ विवाहित पद्धतिमें श्रद्धापूर्वक लगे रह और मेरी पूजा- अधिक हैं। एक तो वैसे ही स्त्रियोंकी संख्या विधिकी ओर माध्यस्थ्यभावना-मतसहिष्णुता कम, दूसरे चौथाई विधवायें, तीसरे किसी किसी रक्खें। दूसरोंकी दृष्टिमें मेरी पूजाविधि भले पुरुषके एकसे अधिक स्त्रियाँ । तब विचार ही अच्छी न हो, पर मेरी पूजापात्र मूर्ति इतनी करनेकी बात है कि कितने पुरुषोंको कुंवारा रहना विशाल है कि उसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर सबका पड़ता है, अर्थात् कितने पुरुष सन्तान उत्पन्न समावेश हो जाता हैं, इस लिए मैं तो अपनी सम- करके जातिकी संख्याको नहीं बढ़ा सकते । इन झके अनुसार अपनी पूजामें इनको भी पूजाका कारणोंसे ही अब तक बराबर जातिका ह्रास मान देता हूँ और इनकी सेवाभक्तिके लिए शरी- होता रहा, वर्तमानमें हो रहा है और आगेको रद्रव्यादि सामग्री भेट करता हूँ । इसलिए मुझपर होगा । यह बात अविवाहित स्त्री पुरुषोंकी इन देवोंको ( श्वेताम्बर-दिगम्बरोंको ) अवकपा संख्यासे भी सिद्ध हो जाती है । ३१७१९७ नहीं करनी चाहिए और यदि कदाचित् अवरुपा पुरुष अविवाहित हैं और १८१७०५ स्त्रियाँ हो जाय तो क्या डर है, देव तो मेरे ही हैं। इन्हें अविवाहित हैं, अर्थात् १३५४९२ पुरुषोंको, अवश्य कुँवारा रहना पड़ेगा। कोई कोई पुरुष कई मना लेनेकी कला इनके भक्तसे छुपी नहीं रह । कई स्त्रियोंसे विवाह करता है, इसके हिसाबसे सकती। लोकमें प्रसिद्ध है कि भक्तके सामने कुँवारोंके और भी अधिक रहनेकी सम्भावना है। भगवान् भी सीधे हो जाते हैं। अतएव यदि जातिकी संख्या बढ़ाना अभीष्ट है समग्र जैनसमाजकी तो कुँवारोंकी दशा सुधारनी चाहिए, समाजमें मूर्तिका उपासक विधवायें कम हों इसका प्रयत्न करना चाहिए । और एक पुरुषको एक पुरुषको एकसे अधिक स्त्रियोंके साथ विवाह करनेसे रोकना चाहिए तथा रंडुअविभक्त जैनसंघका श्रावक, वोंको जिनकी इन्द्रियाँ शिथिल हो गई हैं पुनवाडीलाल मोतीलाल शाह। विवाह करनेसे मना करना चाहिए।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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