Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 62
________________ ४८० जनहितैषी - हैं। आपको केवल वे ही लोग चन्दा नहीं देते हैं जिनके यहाँ लाखों और करोड़ोंका धन है; किन्तु वे भी देते हैं जो साधारण स्थि FRIEठनाईसे अपना निर्वाह करते हैं। उनके एक रुपये और एक आनेका भी बहुत बड़ा मूल्य है - प्राणोंसे वह सचमुच ही कम नहीं है । अतः उनके उस धनकी रक्षा प्राणोंकी रक्षा ही समान बहुत सावधानी से करना चाहिए । इसमें जरासा · भी प्रमाद करना मानों प्राणघात करना है । अपने--स्वोपार्जित या अपने बापदादोंके - धनको खर्च करनेमें आप जिस तरह स्वतंत्र हैं, उस तरह सार्वजनिक धनको खर्च कर नेमें नहीं; इस धनकी जिम्मेवारी बहुत बड़ी है । उस धनके मालिक आप स्वयं हैं; परन्तु इस सार्वजनिक धनके, जिन्होंने वह धन दिया है वे, और जिनके लाभके लिए वह दिया गया है वे भी, मालिक हैं । अतः इसका खर्च आप केवल इच्छामात्रसे नहीं, किन्तु सबकी रायका और सबके लाभका खयाल रखकर कर सकते हैं। यदि आप ऐसा नहीं करते तो अन्याय करते हैं और लोगोंको सार्वजनिक कार्यों में धन न देनेके लिए मानों परोक्षरूपसे उपदेश देते हैं । आपकी इच्छा ही यदि सर्व प्रधान हो जायगी, तो लोग अपना कष्टलब्ध धन आप जैसे लोगों के हाथमें क्यों देंगे ? 1 देवदव्यके भोगनेमें पाप क्यों बतलाया गया है ? ' देवस्वं तु विषं घोरं न विषं विष मुच्यते ' आदि वाक्योंमें देवधनको विषसे Jain Education International बढ़कर क्यों बतलाया है ? पण्डितजन इसका चाहे जो कारण बतलावें, वे अदत्तादान आदिकी सूक्ष्म कल्पना करके इसकी तलीमें भले ही चोरी के पापको टटोलें; परन्तु हमारी मोटी समझके अनुसार तो इसके मूलमें यही सार्वजनिक धनकी जिम्मेवारीका महत्त्व छुपा हुआ है । जो धन एक मन्दिरको इसलिए अर्पण किया गया है कि उससे हजारों अन्यजन अपनी भक्तिभावनाको चरितार्थ करके पुण्य उपार्जन करें, उसे यदि कोई हजम कर जाय, तो कहना होगा कि उसने सर्व साधारण के एक पुण्यद्वारको बन्द कर दिया और सबके हितका घात करना यह चोरीकी अपेक्षा भी बहुत बड़ा पाप है । मन्दिर के ही समान विद्यालय, पुस्तकालय, तीर्थक्षेत्र आदि संस्थाओंका भी धन है, अर्थात् यह भी एक प्रकारका देवद्रव्य है । सेवाधर्ममें जनता भी एक देव है, अतएव इस दृष्टिसे भी उसकी सेवाके धनको देवधन कह सकते हैं । उसके धनके हरणमें और दुरुपयोग आदिके करनेमें पाप अवश्य है और वह बहुत बड़ा पाप है । जिन लोगोंको सार्वजनिक धनके व्यय करनेका अधिकार दिया गया है, उनका कर्तव्य केवल यही नहीं है कि वर्षभरमें एक बार आमदनी और खर्चका हिसाब प्रकाशित कर दिया और छुट्टी पा ली । ( यद्यपि बहुत लोग यह भी समय पर नहीं करते हैं, और कोई तो करते ही नहीं हैं ।) उनका यह भी कर्तव्य है कि वे जो कुछ खर्च करें, वह ऐसी किफायतशारीसे करें कि उससे कम For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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