Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 85
________________ सम्मानित । दूसरा ख्याल आया - पिताका पापलब्ध धन और पापीयसी स्त्री - कामिनी और काञ्चन दोनों ही पाप से सने हुए - मैं क्रोध और क्षोभसे किंकर्त्तव्यविमूढ़ होकर विचार करने लगा । बागके बाहर एक संन्यासी ठहरे हुए थे । हमने उन्हें सब वृत्तान्त सुनाया । उन्होंने कहा - "बेटा, यह ठीक नहीं। तू धन और स्त्रीको छोड़कर हमारे साथ चल ।” मैंने देखा कि स्वामी अन्तर्यामी हैं। मैं मंत्रमुग्धकी तरह उनके साथ हो लिया । आठ वर्ष साधना करके मैं परसों ही कुछ शान्त हुआ हूँ । नहीं तो प्रतिदिन ही मनमें द्वन्द्वयुद्ध होता रहता था । धीरे धीरे मुमुक्षवृत्ति शुद्ध होती जाती थी । आज किसीसे द्वेष नहीं है । कोई द्वन्द्व नहीं है । क्रोध नहीं है । मनमें क्षमा है, पर उनपर भगवान् क्षमा नहीं - " स्वामीजी चुप होगये । भीड़मेंसे ठट्ठा पड़ा । जलतरंग बजने लगी । स्वामीजी ने कहा - " इस समय क्षणिक आनन्द प्राप्त है, पर प्रकृति उन्हें नहीं छोड़ेगी। उन्हीं की भलाईके लिए उनको दण्ड मिलेगा। गुरुदेवने भविष्यत् देख दिया है-वह पागल होकर गली गली मारा फिरेगा, जूठन खावेगा। स्त्री किसी नौकर के साथ व्यभिचार करके असह्य यन्त्रणायें भोगेगी, दासीवृत्ति करेगी और अन्तमें अस्पतालमें मरेगी । हम प्रार्थना करके भी उन्हें नहीं बचा सकते । ईश्वरकी इच्छा ! " हमने कहा - " उन्हें आपने फिर कभी नहीं देखा ? " उन्होंने कहा - " जब हम संन्यासी होकर घरसे चले आये तब उन्हें वहाँ रहना मुश्किल हो गया । वे हमारे पिताका धन लेकर कलकत्ते Jain Education International ५०३ चले आये और सुना है यहाँ नाम बदलकर रहते हैं । लोग उन्हें स्त्री-पुरुष जानते हैं । " 11 जलतरङ्ग बन्द हो गई । एक आदमी कहा - " बोलो राय बहादुरकी जय । सैकड़ों आदमियोंने एक साथ कहा- “जय, राय बहादुरकी जय ! ” स्वामीजी ने कहा - " अच्छा चलते हैं । ईश्वर राय बहादुरका मङ्गल करें। यही हमारा भाई है और इसकी अप्सरातुल्य स्त्री पहले हमारी धर्मपत्नी थी । " स्वामीजी उठ खड़े हुए। हम विस्मयमें पड़े खड़े ही रहे, जुबान से कुछ नहीं निकला । धूल रमाये, मैले गैरुये वस्त्र पहने, मुण्डितशिर, दुबले पतले स्वामीजी अन्धकारमें अदृश्य होगये । हमने देखा उनके चारों और स्वर्गीय ज्योति है और पापी अमरेन्द्र - राजसम्मान से सम्मानित, हास्यमुख, लम्पट अमरेन्द्र - - बागमें खड़ा हुआ अभिनन्दन ग्रहण कर रहा है। वह खूब तृप्त था, खूब सुखी था, खूब सम्मानित था । पर पागल धूल में जा रहा था । उसीका धन, उसीकी स्त्री लेकरओफ ! क्या मालूम समाजमें क्या हो रहा है ! एक बार संन्यासीकी ओर हमने देखा और एक बार उसकी ओर देखा - दोनों के भविष्यत्का स्मरण किया, स्त्रीके भविष्यत्‌का भी स्मरण किया । सर्वनाश ! कौन जाने कौन सम्मानित है - संन्यासी या रायबहादुर ! हम धीरे धीरे बागकी तरफको चल दिये । * * श्रीयुत बाबू केशवचन्द्र गुप्त एम. ए., बी. एल. की बंगला गल्पका अनुवाद | For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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