Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 89
________________ ALLAIMILIMELIMMEDIA विविध प्रसङ्ग। ammEDIREMEETimim देशकी पुरानी प्रथा है, उसकी प्रशंसाका प्रभाव पतिका आदर्श गुण शौर्य था, बल था और यह हमारे चित्तोंपर जम रहा है । इस लिए उसके एक ही गुण उनकी दृष्टिमें उनके सुखी होनेके उद्धारकी बात सुनकर आनन्द होना ही चाहिए; लिए काफी था । इस स्वयंवरमें भी कन्या जिस परन्तु विचारपूर्वक देखनेसे मालम होगा कि गुणको विशेषतासे पसन्द करती हो उस माता पिता द्वारा किये हुए विवाहोंमें जिस स्वभाव गुणमें जो युवक श्रेष्ठ समझा जायगा, वही न मिलने की शिकार त सहयोगी करता है, उसकी वरमालाका आधिकारी होगा, इस प्रकारकी शर्त संभावना इस स्वयम्वर में भी रहेगी । स्वयंवर रहना चाहिए । अस्तु । हमारी समझमें हमारा सभामें वह लड़की आधिक से अधिक यह देख सकती लक्ष्य स्वयंवर या माता पिता द्वारा चुना हुआ है कि वर सुन्दर है, हृष्ट पुष्ट है, शिक्षित है और वर और प्राचीन पद्धति या नवीन पद्धति न सुभाषी है। स्वभावकी परख बिना कुछ दिन . होकर यह होना चाहिए कि जिस पद्धतिसे योग्य तक साथ रहे कैसे होगी ? और यह बिल्कुल - वर और योग्य कन्याओंका दानोंकी सम्मातके सच है कि स्वभाव मिले बिना सन्दरसे सन्टर अनुसार, सुखकर सम्बन्ध हो सके वही पद्धति और हृष्टपुष्ट पुरुषसे भी स्त्रीको सुख नहीं मिल सबसे अच्छी है और उसीका प्रचार होना सकता है । चतुर और विचारशील मातापिता चाहिए। इस प्रकार के स्वयंवरके बिना भी इससे कहीं ५ थियोसोफिकल सुसाइटीका कार्य । अच्छा चुनाव कर सकते हैं । वे पढ़ने-लिखने- इस सुसाइटीकी स्थापना सन् १८७५ में हुई की योग्यता, सुन्दरता और स्वस्थताके सिवाय थी । सारी दुनिया भरमें इसके अनुयायी मौजूद थोड़ेसे परिश्रमसे वरकी चाल चलनका भी पता हैं यद्यपि उनकी संख्या कम है । सारी दुनियाके लगा सकते हैं और यह भी जान सकते हैं कि थियोसोफिस्टोंकी संख्या २५६९६ है और उनकी लड़की उसे पसन्द करती है या नहीं। भारतवासी थियोसोफिस्टोंकी ५९३६ । इतने कम पर उक्त स्वयंवरमें इस प्रकारकी सावधानी होना होकर भी ये लोग काम खूब कर रहे हैं। काशीका कठिन है । न जाने कहाँ कहाँके अपरिचित सेन्ट्रल हिन्दू कालेज थियोसोफिकल सुसाइटीके युवक आवेंगे जिनकी चालचलन और स्वभाव ही परिश्रमका फल था जो अब हिन्दू विश्वआदिके विषयमें कुछ भी ज्ञान न होगा विद्यालयको दे दिया गया है। इसके सिवाय और लड़की अपनी १४ वर्षकी छोटीसी अनु- उसके दो कालेज और हैं,-एक लड़कोंका अडिभवहीन एकदेशी बुद्धिके द्वारा उनमेंसे किसी यारमें और दूसरा लड़कियोंका काशीमें । हाई एकके हाथमें अपने जीवनकी बागडोर पकड़ा स्कूलोंकी संख्या ८ है । ८ प्राइमरीस्कूल, १ मिडिल देगी । कौन कह सकता है कि वह इस स्कल और १ संस्कृतस्कूल भी सुसाइटी चलाती है । युवकको पाकर सचमुच ही सुखी होगी ? पूर्व शिक्षाके सिवाय धार्मिक, सामाजिक और राजकालके स्वयंवरोंसे इस स्वयंवरका मिलान नहीं नीतिक क्षेत्रोंमें भी सुसाइटीने आशासे अधिक हो सकता । द्रौपदी, सीता आदिके स्वयंवरोंमें कार्य किया है। हमारे जैनसमाजके शिक्षिताको कन्याओंकी इच्छानुसार शर्ते की जाती थीं कि जो ससाइटीके मेम्बरोंकी थोड़ीसी संख्या और उसके लक्ष्य वेध करेगा या धनुष तोड़ेगा, उसके गलेमें कामके साथ अपनी संख्या और अपने कामोंका वरमाला पड़ेगी । द्रौपदी और सीताकी दृष्टिमों मिलान करके देखना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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