Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 92
________________ mum जैनहितैषी वस्तुयें नहीं हैं । अधर्म, असत्य और मिथ्यात्व जाता है । केवल वशीभूत ही नहीं हो जाता है किन्तु नामके तत्त्व सुन्दर आकर्षकरूप धारण करके, अपनी इस निर्बलताको छुपानेके छिए उस कषायप्रमादी मनुष्यको भुला देते हैं और उसे युक्ति- परिवारको भी सुन्दर मोहक स्वरूप और प्रभावप्रयुक्तियोंसे अपने वशमें करके, अपना गुलाम शाली नाम दे देता है और यह बतलाना चाहता है बनाके, उस पर अत्याचार करते हैं । मनुष्योंका कि “मैं निर्बल नहीं हूँ, सबल हूँ, मैं कषायके बहुत बड़ा भाग इसी अवस्थामें पड़ा हुआ है। वशीभूत थोडे ही हुआ हूँ किन्तु मैंने धर्मपालनके बड़े भारी खेदकी बात यह है कि जो मनुष्य लिए कषायको केवल एक अस्त्र बना लिया है!" अधर्म और असत्यकी गुलामी चिरकालसे करता वह कहता है कि “यह मैं मानता हूँ कि आ रहा है, वह चाहे जितना ही ख्वार क्यों न क्रोध करना, लड़ना, फूट डालना, वैर निकालना, हो जाय, तो भी, बहुत समयके परिचयके आदि सब बातें पाप हैं; परन्तु मैं तो सच्चे कारण, इन 'खूबसूरत बला' ओंको ही अपनी धर्मकी रक्षाके लिए, एक हथियारके तौरपर इष्टदेवी मान लेता है और इन फँसानेवाली इन वृत्तियोंसे काम लेता हूँ । इस लिए इसमें बलाओंको ही 'सत्यकी रानी' माननेके कोई हानि नहीं है । इससे तो मुझे उल्टा धर्मलिए औरोंको भी समझानेका यत्न करता रक्षाका महान् पुण्य-बन्ध होगा । इस लिए हे है। ऐसी परिस्थितिमें, सत्यकी देवीको खोज नि- भाइयो! तुम भी मेरा मार्ग धर लो और कषायकालनेका काम, बहुत ही दुष्कर हो जाता है। सेवनमें लग जाओ । प्यारे भोले भाइयो ! तुम्हारे उसको पानेका मार्ग है भी बहुत कठिन, ऐसे आगे कुछ थोड़ेसे लोग दयाकी, शान्तिकी, सममनुष्य उस पर चल ही नहीं सकते हैं जो झौतेकी, क्षमाकी, उदारताकी, भलमंसाहतकी पग पग पर लुभा जाते हों या उत्तेजित हो और एकताकी मीठी मीठी बातें कर रहे हैं, पर जाते हों। सत्यदेवी अपने उम्मेदवारोंको उच्च सावधान! तम इनसे बचे रहना, नहीं तो ये चारित्रकी कठिन कसौटी पर कसती है, दुःख तुम्हें बिल्कुल पुरुषत्वहीन बना देंगे । ये क्षमा देती है और दुःख सहन करनेपर जो उम्मेदवार दया आदि सब गुण केवलज्ञानियों, तीर्थकरों उच्च चारित्र (क्षमा, दया, नम्रता आदि ) को और मुनिजनोंके लिए ही हैं; हम लोग तो पंचसम्पूर्ण रीतिसे, हरतरहका त्याग करके, पाल मकालके मनुष्य हैं, इस लिए हमारे लिए तो सकता है उसे ही दर्शन देती है। लड़ना, झगड़ना, ईर्षा करना, भड़काना, भाईधर्मका आधार चारित्र अथवा सदाचार है। भाईका अहित चाहना, जैसे बने तैसे सर्वोपरि कषायोंको दबाये बिना सदाचार नहीं बन , - बनना, धर्मके नामसे युद्ध करना, 'रक्षा' के सकता और जब तक कषायें म लिए 'हिंसा' करना, झूठी गवाहियाँ तैयार हैं तबतक आत्माका कल्याण नहीं हो सकता। करना, अपनी वैरवृत्तिको तृप्त करनेके लिए इसलिए धर्मका प्रथम उपदेश यह है कि अज्ञानी जनोंको उत्तेजित करना और उनकी कषायोंको दबाओ, कषायोंको मन्द करो। अज्ञानतासे लाभ उठाकर उनके रुपयोंसे युद्ध परन्तु क्रोध, वैर आदि, जो कषायोंका परि- करना-पराये पैसोंसे दिवाली' मनाना, यही धर्म वार है, वह इतना बलवान है कि मनष्य उससे पानको सार्थकता है। . डर जाता है और शीघ्र ही उनके वशीभूत हो खेदकी बात है कि मिथ्यात्वका यह उपदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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