Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 93
________________ तीर्थों के झगड़े मिटानेका आन्दोलन । अज्ञानी जनों पर बहुत ही जल्दी असर कर जाता है । क्योंकि जनसाधारणकी सदसद्विवेकबुद्धि या अच्छे बुरे को पहचान सकनेकी शक्ति मन्द होती है; वे आजकल के 'धर्मात्मा' कहलानेवाले लोगों के मुँह से निकले हुए शब्दों को ही सत्य मान लेते हैं । वे यह नहीं जानते अपना हित मनुष्य आप ही कर सकता है; जब तक अपनी हिताहित समझने की बुद्धिका विकाश नहीं होगा तब तक मिथ्यात्वके मोह उपजानेवाले प्रपंचोंसे उसकी रक्षा नहीं हो सकेगी । इसी कारण शास्त्रकार कहते हैं कि पंचम - कालमें सम्यग्ज्ञान या सत्यज्ञानकी प्राप्ति अतिशय कठिन है । एक तो मनुष्यमें अपना हिताहित सोच सकनेकी यों ही कमी है, पराये उपदेशों पर विश्वास रखके ठगाये जानेका स्वभाव ही विशेष है और दूसरे मिथ्यात्वरूपी शैतानका बल इतना बढ़ा चढ़ा हुआ है कि उसने अपनी लुभानेवाली - आकर्षक - जनसाधारणको मोहित कर डालने की कलाका जाल लगभग सारे संसार में फैला रक्खा है । तो भी, जिन्हें अपने धर्मकी- अपने आत्मा के रक्षणकी सचमुच ही चिन्ता है, उन्हें निराश न होना चाहिए । सत्यका कुछ लोप नहीं हो गया है, केवल उसके ऊपर स्वार्थसाधु अज्ञानी या हठी लोगोंने परदा डाल रक्खा है । इस पर - देको अपनी बुद्धिरूपी पैनी छुरीसे काट डालने - की जरूरत है । जो लोग ऐसा करेंगे उन्हें सत्य - देवी - धर्म - दर्शन अवश्य होंगे । " मार्ग एक ही है, ' हाँ, सचमुच एक ही है और वह यह है कि वीतराग अर्थात् रागद्वेषरहित महा पुरुषोंके उपदेश किये हुए शास्त्र आप स्वयं ही वाँचिए, स्वयं ही समझिए और जो रागद्वेषका उपदेश देते हों, उनका उपदेश सुननसे साफ इंकार कर दीजिए । वीतरागता प्राप्त करना ही प्रत्येक मनु Jain Education International ५११ ष्यका लक्ष्यबिन्दु होना चाहिए और मनुष्य, चाहे वह संसारी हो चाहे गृहत्यागी, उसे रागद्वेष कम करते जाने का ही उद्यम करते रहना चाहिए । 'त्यागियों को रागद्वेषसे दूर रहना चाहिए और संसारियोंको रागद्वेष के कीचड़ में फँसना चाहिए, ' ऐसे महा अनर्थकारी उपदेशोंसे बचिए ! यदि तुम इसे सुनोगे तो याद रक्खो फँस जाओगे । इसलिए साहसी बनो, आत्मबलको स्फुरायमान करो, मिथ्यात्वसे डरो, और रागद्वेष बढ़ानेवाली तथा धर्मके नामसे झगड़ा फसाद करनेवाली फिलासफी बतलानेवालोंसे दूर रहो । यदि तुम ज्ञानका प्रकाश चाहते हो, तो वह अज्ञानके अन्धकार में जानेसे नहीं मिलेगा । वीतरागता या मुक्ति चाहते हो, तो वह लड़ाई-झगड़ों और द्वेष - वैरों में कभी नहीं मिलने की । जो दुनियादारी में लाचार होकर रागद्वेष करते हों, उन्हें भी धर्म के कार्यों में तो रागद्वेषके दूर करनेका ही उद्योग करना चाहिए कि जिससे धीरे धीरे समभावका अभ्यास बढ़ता रहे और समय आने पर दुनियादारीमें भी रागद्वेषरहित आचरण हो सके । भाइयो ! मुक्ति के इच्छुको ! यदि तुम तत्त्वज्ञानकी गहरी बातें नहीं समझ सकते हो तो न सही; पर रागद्वेषको कम करनेका अभ्यास डालने की ओर अवश्य ध्यान रक्खोयदि केवल इसी एक बात को स्मरण रक्खोगे तो तुममें सारे सद्गुण और सारे ज्ञान एक न एक दिन जागरित हुए बिना न रहेंगे । जैन समाज में तीर्थोंके सम्बन्धमें जो झगड़े चल रहे हैं उनको शान्त करने के लिए गत पर्युषण पर्व के समय, कितने ही दिगम्बर - श्वेताम्बर सज्जनोंकी सहानुभूतिसे एक निर्दोष आन्दोलन इस लेखक ने उठाया था, जिसका स्वरूप हितैषीके गत अंकमें विस्तार के साथ समझाया गया है और इस ढंगसे समझाया है कि उसमें किसी For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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