Book Title: Jain Hiteshi 1916 Ank 09 10
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay

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Page 79
________________ AAICHILAITHLILALLAHALDILAAILERY सम्मानित। Rammmmmmuniturnimum ४९७ PART हमने कहा-"यह ठीक है। पर उनमें अच्छे पुत्रने आकर कहा-“बाबा, आज हमारे फुटआदमी भी हैं। हमारा मित्र पागल संन्यासी है। बाल-क्लबको खूब लाभ हुआ है ।" हमने पूछाबिल्कुल उदासीन संन्यासी है। कभी कभी हमारे "क्या?" बालकने कहा-“आज हमारे क्लबमें पास आजाता है। आप कहें तो आपके साथ..." वही पागल संन्यासी गये थे। सबने उन्हें नमस्कार __ अमरेन्द्र बाबूने कहा-"क्षमा कीजिए। किया। उन्होंने पूछा-'तुम्हारा कप्तान कौन इन बदमाशोंको हम अपनी कोठीकी हदके है ? ' रमेशने उनके पास जाकर कहा-'जी मैं अन्दर नहीं आने देते। सभी धूर्त हैं। सभीकी हूँ।' उन्होंने उसके हाथमें पाँच रुपये गुप्त कथायें है।" देकर कहा-'लो, यह हमारा चन्दा है। [२] पर देखो किसी तरहकी बुराई तुम्हारे क्लबमें हमारे अतिथि पागल साधुका भी कुछ गुप्त प्रवेश न करने पावे।" इतिहास था-इसमें कोई सन्देह नहीं । उसको अमरेन्द्र बाबूके घरसे आकर हम पागल देखनेसे यह मालूम होता था कि वह आनन्दमय स्वामीसे बातचीत करने लगे । भगवद्गीता पर है, शोक दुःख, हिताहित और शुभाशुभ विष- वह अक्सर बहुत ही भावपूर्ण भाषण किया योंसे उदासीन है । पर जरा गौरसे देखो तो करता था । आज बहुतसी बातोंके बाद उसने मालूम होता था कि वह दिनरात किसी घोरे कहा-" हमारे देशके शास्त्रमें तो लिखा है कि । भावयुद्धमें लगा रहता है। हम चिकित्साव्यवसायी काम तो करो, पर कामसे अलग रहो।" थे इसीलिए उसकी मानसिक अवस्थाका बहुत हमने कहा-"अच्छा स्वामीजी, जिस समय कुछ आभास पा जाते थे। मानसिक संग्रामके आप संसारमें थे उस समय भी क्या इसी नीतिके चिह्न उसकी आँखोंमें, ललाटपर और तरुण अनुसार काम करते थे ?" मस्तकके किसी किसी सफेद बालमें विद्यमान थे। हमें यह भी मालूम होता था कि वह दिनों ___ स्वामीजीका मुँह गम्भीर हो गया । उन्होंने दिन उस संग्राममें जय प्राप्त कर रहा है। चाहे कहा-" किसी दिन बताऊँगा । मैं जिस समय गृहस्थ था उस समय मुझे इन बातोंकी खबर वह और मनुष्योंके समक्ष समदर्शी हो, पर हमें - भी न थी। जिस समय गृहस्थ था, उस समय , मालूम होता था कि वह स्त्रीजातिसे जरूर घृणा करता है । उसके अच्छे वंशके होनेमें हमारे घरमें दुर्गोत्सव होता था-सभी कुछ होता था। किन्तु मैं उन सब कामोंमें राजसिक भावसे कुछ भी सन्देह नहीं था । वह अच्छे साधुओंकी , तरह धनको तुच्छ ही नहीं समझता था, किन्तु . लिप्त रहता था । हाँ, जब गृहस्थ था तब एक उसे धनसे घृणा भी थी। कोई पाँच महीने में अच्छा काम जरूर करता था-दान । " पहले जब वह हमारे पास आया था, तब हमने हमने कहा-" उससे बढ़कर तो और कोई उसे मार्गव्ययके लिए कोई पाँच रुपये दिये थे। दूसरा काम ही नहीं है।" पहले तो उसने उन्हें लेनेसे इन्कार किया, पर उसने हँसकर कहा-" यह अच्छा काम बादको यह जानकर कि न लेनेसे शायद हमें भी और सब कामोंकी तरह सात्त्विक, राजसिक तकलीफ पहुँचे-बायें हाथसे वे रुपये ले लिये। और तामसिक भावसे किया जाता है । राजसिक उसके जानेके कोई पाँच ही मिनट बाद हमारे दान किसे कहते हैं-जानते हो ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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